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जी॒वान्नो॑ अ॒भि धे॑त॒नादि॑त्यासः पु॒रा हथा॑त् । कद्ध॑ स्थ हवनश्रुतः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

jīvān no abhi dhetanādityāsaḥ purā hathāt | kad dha stha havanaśrutaḥ ||

पद पाठ

जी॒वान् । नः॒ । अ॒भि । धे॒त॒न॒ । आदि॑त्यासः । पु॒रा । हथा॑त् । कत् । ह॒ । स्थ॒ । ह॒व॒न॒ऽश्रु॒तः॒ ॥ ८.६७.५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:67» मन्त्र:5 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:51» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:5


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रः) ब्राह्मणप्रतिनिधि (वरुणः) क्षत्रियप्रतिनिधि (अर्य्यमा) वैश्यप्रतिनिधि (आदित्यासः) और सूर्य्यवत् प्रकाशमान और दुःखहरणकर्ता अन्यान्य सभासद् (यथा+विदुः) जैसा जानते हों या जानते हैं, उस रीति से (नः) हम प्रजागणों के (अंहतिम्) क्लेश, उपद्रव, दुर्भिक्ष, पाप और इस प्रकार के निखिल विघ्नों को (अति+पर्षद्) अत्यन्त दूर ले जाएँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - मित्र=जो स्नेहमय और प्रेमागार हो। वरुण=जो न्यायदृष्टि से दण्ड दे और सत्यता का स्तम्भ हो। अर्य्यमा=अर्य्य=वैश्य, मा=माननीय=वैश्यों का माननीय। यद्वा न्याय के लिये जिसके निकट लोग पहुँचें, वह अर्य्यमा=अभिगमनीय। अंहति=जो प्राप्त होकर प्रजाओं का हनन करे, जिसका आगमन असह्य हो। सभासद् वे हों, जो बड़े बुद्धिमान्, बड़े परिश्रमी, बड़े उद्योगी, सत्यवादी, निर्लोभ और परहितशक्त हों ॥२॥
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - मित्रः=ब्राह्मणप्रतिनिधिः। वरुणः=क्षत्रियप्रतिनिधिः। अर्य्यमा=वैश्यप्रतिनिधिः। आदित्यासः=आदित्याः= आदित्यवद्ध्वाननिवारका अन्ये सभासदः। यथा विदुः=यथा जानन्ति। तथा। नः=अस्माकम्। अंहतिम्=क्लेशमुपद्रवं दुर्भिक्षं पापमित्येवंविधान् विघ्नान्। अतिपर्षद्=अतिनयन्तु अत्यन्तं दूरमपसारयन्तु ॥२॥