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अग्ने॒ जरि॑तर्वि॒श्पति॑स्तेपा॒नो दे॑व र॒क्षस॑: । अप्रो॑षिवान्गृ॒हप॑तिर्म॒हाँ अ॑सि दि॒वस्पा॒युर्दु॑रोण॒युः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne jaritar viśpatis tepāno deva rakṣasaḥ | aproṣivān gṛhapatir mahām̐ asi divas pāyur duroṇayuḥ ||

पद पाठ

अग्ने॑ । जरि॑तः । वि॒श्पतिः॑ । ते॒पा॒नः । दे॒व॒ । र॒क्षसः॑ । अप्रो॑षिऽवान् । गृ॒हऽप॑तिः । म॒हान् । अ॒सि॒ । दि॒वः । पा॒युः । दि॒रो॒ण॒ऽयुः ॥ ८.६०.१९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:60» मन्त्र:19 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:35» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:19


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे सर्वगत ईश ! (तम्+इत्+त्वा) उस व्यापी तेरी ही (सप्त+होतारः) सात होता (ईळते) स्तुति करते हैं। जो तू (सुत्यजम्) सर्व प्रकार के दान देनेवाला है और (अह्रयम्) अक्षय है। (अग्ने) हे सर्वाधार परमात्मन् ! तू (तपसा) ज्ञानमय तप से और (शोचिषा) तेज से (अद्रिम्) आदि सृष्टि को (भिनत्सि) बनाता है, वह तू (जनान्+अति) मनुष्यों के अति समीप में (प्र+तिष्ठ) स्थित हो ॥१६॥
भावार्थभाषाः - यज्ञ में परमात्मा की ही स्तुति प्रार्थना करनी चाहिये। सप्त होता, दो नयन, दो कर्ण, दो नासिकाएँ और एक जिह्वा ये सात हैं। अथवा होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा और यजमान यजमान-पत्नी और पत्नी की सहायिका। यह इसका आशय है। इत्यादि ॥१६॥
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! तमित्=तमेव। त्वा=त्वाम्। सप्तहोतारः। ईळते=स्तुवन्ति। कीदृशम्। सुत्यजम्=सुत्यागम्= सर्वत्यागशीलम्। पुनः। अह्रयम्=अक्षयम्। हे अग्ने ! त्वं तपसा। शोचिषा=तेजसा च। अद्रिम्=आदिसंसारम्। भिनत्सि। हे देव ! त्वं जनान्। अति=अतिसमीपे। प्र तिष्ठ ॥१६॥