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पा॒हि विश्व॑स्माद्र॒क्षसो॒ अरा॑व्ण॒: प्र स्म॒ वाजे॑षु नोऽव । त्वामिद्धि नेदि॑ष्ठं दे॒वता॑तय आ॒पिं नक्षा॑महे वृ॒धे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pāhi viśvasmād rakṣaso arāvṇaḥ pra sma vājeṣu no va | tvām id dhi nediṣṭhaṁ devatātaya āpiṁ nakṣāmahe vṛdhe ||

पद पाठ

पा॒हि । विश्व॑स्मात् । र॒क्षसः॑ । अरा॑व्णः । प्र । स्म॒ । वाजे॑षु । नः॒ । अ॒व॒ । त्वाम् । इत् । हि । नेदि॑ष्ठम् । दे॒वऽता॑तये । आ॒पिम् । नक्षा॑महे । वृ॒धे ॥ ८.६०.१०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:60» मन्त्र:10 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:33» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:10


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे सर्वाधार ईश ! तू (यथाचित्) जिस प्रकार (क्षमि) पृथिव्यादि लोकों में वर्तमान (वृद्धम्) अतिशय जीर्ण (अतसम्) शरीर को (संजूर्वसि) जीवात्मा से छुड़ाकर नष्टभ्रष्ट कर देता है, क्योंकि तू संहारकर्त्ता भी है, (एव) वैसे ही (दह) उस दुर्जन को दग्ध कर दे, (मित्रमहः) हे सर्वजीवपूज्य ! (यः+अस्मध्रुग्) जो हम लोगों का द्रोही है, (दुर्मन्मा) दुर्मति और (वेनति) सबके अहित की ही कामना करता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - यह सूक्त भौतिकाग्नि में भी प्रयुक्त होता है, अतः इसके शब्दादि द्व्यर्थक हैं। अग्नि पक्ष में जैसे अग्नि बहुत बढ़ते हुए काष्ठ को भी भस्मकर पृथिवी में मिला देता है, तद्वत् मेरे शत्रु को भी भस्म कर इत्यादि। ऐसे-२ मन्त्रों से यह शिक्षा मिलती है कि किसी की अनिष्टचिन्ता नहीं करनी चाहिये, किन्तु परस्पर मित्र के समान व्यवहार करते हुए जीवन बिताना चाहिये। इस थोड़े से जीवन में जहाँ तक हो, उपकार कर जाओ। इति ॥७॥
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! क्षमि=पृथिव्यां पृथिव्यादिलोकेषु। यथाचिद्=येन प्रकारेण। वृद्धं=जीर्णम्। अतसम्=शरीरम्। संजूर्वसि=संशोषयसि=दहसि। एव=एवमेव। हे मित्रमहः=मित्राणां मित्रभूतानां जीवानां पूज्यतम ! यः कश्चन। अस्मध्रुग्=अस्माकं द्रोग्धा। दुर्मन्मा=दुर्मतिः। तथाऽस्माकं द्रोहम्। वेनति=कामयते। तादृशं दह=भस्मीकुरु ॥७॥