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देवता: इन्द्र: ऋषि: वत्सः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

इ॒मा अ॒भि प्र णो॑नुमो वि॒पामग्रे॑षु धी॒तय॑: । अ॒ग्नेः शो॒चिर्न दि॒द्युत॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imā abhi pra ṇonumo vipām agreṣu dhītayaḥ | agneḥ śocir na didyutaḥ ||

पद पाठ

इ॒माः । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒मः॒ । वि॒पाम् । अग्रे॑षु । धी॒तयः॑ । अ॒ग्नेः । शो॒चिः । न । दि॒द्युतः॑ ॥ ८.६.७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:7 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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शिव शंकर शर्मा

ईश्वर को प्रात्यहिक कर्म निवेदन करे, यह इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! हम अल्पज्ञ जीव निज-२ साक्षी के लिये (विपाम्) विशेषद्रष्टा विद्वानों के निकट (इमाः) प्रतिदिन क्रियमाण इन (धीतयः) कर्मों को (अभि) सब तरह से (प्रणोनुमः) विनयपूर्वक निवेदन करते रहते हैं। हे विद्वानो ! यदि हमारे कर्मों में कोई न्यूनता हो, तो उसे दिखलाकर हमको बोधित कीजिये। इस प्रकार निवेदन करके हम अज्ञानी जीव निज-२ कर्मों का संशोधन करते ही रहते हैं, तथापि मनुष्यत्व के कारण उनमें कोई त्रुटि रह जाय, तो आपके अतिरिक्त उसको कौन समझा सकता है। आगे दिखलाते हैं कि अपनी बुद्धि के अनुसार हम उत्तम कर्म करते हैं, किन्तु वे ऐसे हैं या नहीं, उसे आप ही जानें। यथा−वे कर्म (अग्नेः) अग्नि की (शोचिः+न) दीप्ति के समान (दिद्युतः) दीप्यमान अर्थात् शुद्ध पवित्र हैं, क्योंकि वे एक तो वेद के अनुकूल हैं और वेदविद् विद्वानों से संशोधित हैं। तथापि यदि भ्रम हो तो आप ही दूर करें। यह आशय इस ऋचा का है ॥७॥
भावार्थभाषाः - जो कुछ लौकिक वा वैदिक कर्म हम करें, वह सब प्रथम विद्वानों के निकट निवेदनीय है, क्योंकि यदि उसमें कोई न्यूनता हो, तो विद्वानों के द्वारा शोधित होकर फल देने में समर्थ होती है। इससे अभिमान त्यागना चाहिये, यह भी शिक्षा होती है ॥७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्नेः, शोचिः, न) अग्नि की ज्वाला के सदृश (दिद्युतः) दीप्तिवाली (इमाः, धीतयः) ये स्तुतियें (विपाम्) विद्वानों के (अग्रेषु) समक्ष हम लोग (अभि, प्रणोनुमः) पुनः-पुनः उच्चारण करते हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - हम लोग दीप्तिवाली=तेजस्वी गुणोंवाली अर्थात् तेजस्वी बनानेवाली ऋचाओं को विद्वानों के सन्मुख पुनः-पुनः उच्चारण करते हैं, जिस से कि वह हमारी न्यूनता को पूर्ण करें, ताकि हम लोग तेजस्वीभाव को भले प्रकार धारण करनेवाले हों ॥७॥
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शिव शंकर शर्मा

ईशाय प्रात्यहिकं कर्म निवेदयेदित्यनया दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! वयमल्पज्ञा जीवाः स्वसाक्ष्याय। विपाम्=विशेषद्रष्टॄणां विदुषां निकटे। इमाः=अहरहः क्रियमाणा एताः। धीतयः=धीतीः=कर्माणि। अभि=सर्वतो भावेन। प्रणोनुमः=प्रकर्षेण वदामो निवेदयामः। हे विद्वांसो ! यदि अस्माकं कर्मसु कापि न्यूनता स्यात् तर्हि यूयं तां प्रदर्श्यास्मान् बोधयत इत्थं निवेद्य स्वस्वकर्माणि संशोधयामः। तथापि यदि कश्चिच्छिद्रोऽवशिष्यत तर्हि तं त्वमेव प्रबोधय। कीदृशीर्धीतयः। अस्माकं दृष्ट्या। अग्नेः। शोचिर्न=दीप्तिरिव। दिद्युतः=दीप्यमानाः शुद्धा इत्यर्थः ॥७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्नेः, शोचिः, न) अग्नेर्ज्वालामिव (दिद्युतः) दीप्यमानाः (इमाः, धीतयः) इमाः स्तुतीः (विपाम्) विदुषाम् (अग्रेषु) अग्रतः (अभि, प्रणोनुमः) पुनः पुनर्ब्रूमः ॥७॥