श॒तम॒हं ति॒रिन्दि॑रे स॒हस्रं॒ पर्शा॒वा द॑दे । राधां॑सि॒ याद्वा॑नाम् ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
śatam ahaṁ tirindire sahasram parśāv ā dade | rādhāṁsi yādvānām ||
पद पाठ
श॒तम् । अ॒हम् । ति॒रिन्दि॑रे । स॒हस्र॑म् । पर्शौ॑ । आ । द॒दे॒ । राधां॑सि । याद्वा॑नाम् ॥ ८.६.४६
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:46
| अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:17» मन्त्र:6
| मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:46
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शिव शंकर शर्मा
इस ऋचा से कृतज्ञता प्रकाशित की जाती है।
पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्) मैं उपासक (याद्वा२नाम्) मनुष्यों में (प३र्शौ) व्यापक तथापि (तिरिन्दि१रे) गूढ़ परमात्मा से (शतम्+सहस्रम्) अनन्त (राधांसि) उत्तम धनों को (आददे) प्राप्त करता हूँ ॥४६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य जो कुछ पुरुषार्थ से प्राप्त करे, उसी से तुष्ट होकर सदा परमदेव की स्तुति करे। कदापि भी भाग्यनिन्दक अथवा ईश्वरोपालम्भक न होवे ॥४६॥
टिप्पणी: १−तिरिन्दिर=तिर्+इन्दिर। इन्दिर और इन्द्र ये दोनों पर्याय शब्द हैं। परमैश्वर्य्यार्थक इदि धातु से इन्द्र और इन्दिर दोनों शब्द बनते हैं। तिर्=गुप्त, गूढ, छिपा हुआ। जो परमात्मा सबमें रहता हुआ भी नहीं दीखता है, वह तिरिन्दिर=तिरोभूतेन्द्र। २−याद्व=यदु नाम मनुष्य का है। यदु शब्द से स्वार्थ में प्रत्यय होकर याद्व प्रयोग होता है। ३−पर्शु=व्यापक। परिशेते इति पर्शुः। जो चारों ओर विद्यमान है वह पर्शु ॥४६॥ * पूर्ववत् यहाँ भी सूक्तान्त में लब्धधन ऋषिगण कृतज्ञता प्रकाशित करते हैं। सबको वैसा करना चाहिये, यह शिक्षा इससे देते हैं। अन्यान्य भाष्यकार यहाँ से मानव इतिहास परक अर्थ करते हैं और तिरिन्दिर नाम का कोई राजा है, ऐसा कहते हैं, परन्तु वह अर्थ मुझको इसलिये अनुचित प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण सूक्त में इन्द्र का ही वर्णन है। इस सूक्त से अन्यत्र कहीं भी तिरिन्दिर की चर्चा नहीं। तब केवल अन्तिम तीन ऋचाओं में इन्द्रप्रकरण छोड़ अन्य राजा के दान की प्रशंसा हो, यह हो नहीं सकता। यदि कहा जाय कि परमात्मा तो साक्षात् किसी को देता नहीं। ईश्वरोपासक को किसी से पुष्कल धन मिल जाता है। इस अवस्था में वह विश्वासी उपासक ईश्वर की स्तुति के साथ-२ उस दानी की भी स्तुति करता है। यह वर्णन भी सूक्तान्त में वैसा ही हो सकता है, इससे यह आशय द्योतित करता है कि इन्द्रोपासक सदा सुखी रहते हैं, अतः सब कोई उसकी उपासना स्तुति करें। उत्तर−अन्त में परमदेव की ही स्तुति और प्रार्थना होनी चाहिये। इस प्रकार की स्तुति इसी सूक्त की नवमी दशमी ऋचा में देखिये। यहाँ पर शब्द कुछ कठिन और गूढार्थ हैं, अतः प्रकरणान्तर प्रतीत होता है। यह एक बात सदा स्मरणीय है कि ऋग्वेद में एक ही सूक्त नाना प्रकरणों का वर्णन नहीं करता। देवतान्तर का वर्णन होता है, इसमें सन्देह नहीं, परन्तु वहाँ भी वैदिक शैली पर विचार करने से केवल देवतावाचक नामों का भेद प्रतीत होगा, वास्तव में अर्थभेद नहीं और वर्णनरीति का भी परिवर्तन नहीं। यहाँ कहाँ इन्द्र की स्तुति, प्रार्थना और कहाँ अन्य राजा की दानस्तुति। वह स्तुति भी यदि मनुष्य में लगाई जाय, तो असंगत प्रतीत होती है, अतः इसको भी मैंने इन्द्र में ही घटाया है। आगे पदों की विचित्रता पर ध्यान दीजिये ॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (याद्वानाम्) मनुष्यों में (तिरिन्दिरे) जो अज्ञाननाशक हैं, उनके निमित्त (शतम्) सौ प्रकार का धन (पर्शौ) जो दूसरों को देता है, उसके लिये (सहस्रम्, राधांसि) सहस्र प्रकार के धनों को (अहम्) मैं (आददे) धारण करता हूँ ॥४६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि कर्मानुसार यथाभाग सबको देनेवाला परमात्मा ज्ञानशील तथा परोपकारी पुरुषों को सैकड़ों तथा सहस्रों प्रकार के पदार्थ प्रदान करता है ॥४६॥
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शिव शंकर शर्मा
अनयर्चा कृतज्ञता प्रकाश्यते।
पदार्थान्वयभाषाः - पूर्ववदिहापि सूक्तान्ते लब्धधनैर्ऋषिभिः कृतज्ञता प्रकाश्यते। सर्वैस्तद्वत्कर्त्तव्यमिति शिक्षते। यथा−अहमुपासकः। याद्वानाम्=यदूनाम्=मनुष्याणां मध्ये। यदुरिति मनुष्यनाम। यदव एव याद्वाः। स्वार्थिकस्तद्धितः। पर्शौ तिरिन्दिरे=पर्शोस्तिरिन्दिरात्। पर्शुर्व्यापकः। तिरिन्दिरः=तिरिन्द्रः=गूढेन्द्रः। सर्वव्यापकादपि गूढादिन्द्रात्। शतं सहस्रम्=अनन्तानि। राधांसि=पूज्यानि धनानि। आददे=गृह्णामि=प्राप्नोमीत्यर्थः ॥४६॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (याद्वानाम्) मनुष्याणां मध्ये (तिरिन्दिरे) अज्ञाननाशकाय (शतम्) शतं धनानि (पर्शौ) दानशीलाय च (सहस्रम्, राधांसि) सहस्रं धनानि (अहम्, आददे) अहं दधामि ॥४६॥