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आ नो॑ याहि परा॒वतो॒ हरि॑भ्यां हर्य॒ताभ्या॑म् । इ॒ममि॑न्द्र सु॒तं पि॑ब ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no yāhi parāvato haribhyāṁ haryatābhyām | imam indra sutam piba ||

पद पाठ

आ । नः॒ । या॒हि॒ । प॒रा॒ऽवतः॑ । हरि॑ऽभ्याम् । ह॒र्य॒ताभ्या॑म् । इ॒मम् । इ॒न्द्र॒ । सु॒तम् । पि॒ब॒ ॥ ८.६.३६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:36 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:36


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शिव शंकर शर्मा

इससे इन्द्र की स्तुति होती है।

पदार्थान्वयभाषाः - मैं पूर्व में बहुधा कह चुका हूँ कि जो ये स्थावर और जङ्गमरूप दो प्रकार के संसार हैं, वे ही परमात्मा के मानो, अश्वसमान हैं। जैसे अश्वपृष्ठ के ऊपर बैठा पुरुष सबसे अच्छे प्रकार देखा जाता है, तद्वत् परमात्मा भी इन दोनों में ही देखा जाता है। साक्षात् उसका अवलोकन कोई नहीं कर सकता है। वे द्विविध संसार वैदिक भाषा में “हरि” कहलाते हैं, क्योंकि अपने-२ प्रभाव से एक दूसरे को हरण करते हैं, परमात्मा केवल इन दोनों में ही नहीं हैं, इनसे अतिरिक्त स्थानों में भी वह विद्यमान है, जिनके विषय में हम जीव कुछ नहीं कह सकते। उन स्थानों का नाम परावान है। अथ मन्त्रार्थ−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (हर्यताभ्याम्) परमकमनीय=सबसे अभिवाञ्छित (हरिभ्याम्) परस्पर हरण करनेवाले स्थावर और जङ्गमरूप संसारों द्वारा तू (परावतः) अदृश्य=अति दूर देश से भी आकर (नः) हम भक्तजनों के निकट (आ+याहि) अपने को प्रकट कर, जिससे तेरा दर्शन पाकर हम तृप्त होवें। और हे इन्द्र ! (इमम्) इस (सुतम्) हमारे शुभ कर्मों को और सब पदार्थों को (पिब) कृपादृष्टि से देख, यह परम भक्तिसूचक स्तुति है ॥३६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! सृष्टि के अध्ययन से ही ईश्वर का बोध होता है। जब मनुष्य उसकी विभूति को जानते हैं और उसकी आज्ञा में सदा रहते हैं, तब निश्चय उस पर वह प्रसन्न होता है ॥३६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (परावतः) दूरदेश से (हर्यताभ्याम्) मनोहर (हरिभ्याम्) हरणशील ज्ञान और विज्ञानद्वारा (नः) हमारे समीप (आयाहि) आवें (इमम्, सुतम्) इस संस्कृत अन्तःकरण को (पिब) अनुभव करें ॥३६॥
भावार्थभाषाः - हे सर्वरक्षक प्रभो ! आप हमारे हृदय में विराजमान होकर हमारे संस्कृत हृदय को अनुभव करें अर्थात् हमारी न्यूनता को दूर करें, जिससे केवल एकमात्र आप ही का मान और ध्यान हमारे हृदय में हो ॥३६॥
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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रः स्तूयते।

पदार्थान्वयभाषाः - बहुशः पूर्वमुक्तम्। यौ स्थावरजङ्गमात्मकौ द्वौ संसारौ स्तः। तावेव परमात्मनोऽश्वाविव वर्त्तेते। यथा कश्चिदश्वपृष्ठस्थो गच्छन् सर्वैर्दृश्यते। तथैव तद्विधसंसारव्यापी परमात्मा सर्वैर्लक्ष्यते। अथ मन्त्रार्थः−हे इन्द्र ! हर्य्यताभ्याम्=सर्वैः कमनीयाभ्याम्। हरिभ्याम्=परस्परहरणशीलाभ्याम्=स्थावरजङ्गमात्मकाभ्यां संसाराभ्याम्। परावतः=अदृश्यादपि अतिदूराद्देशात्। नोऽस्मान्। आयाहि=स्वात्मानं प्रकटय। तथा। आगत्य इमं सुतम्=अस्माकं यज्ञं सर्वं वस्तु वा। पिब=अनुगृहाण ॥३६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (परावतः) दूरदेशात् (हर्यताभ्याम्) कमनीयाभ्याम् (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्यां ज्ञानविज्ञानाभ्याम् (नः) अस्मान् (आयाहि) आगच्छ (इमम्, सुतम्) इमं संस्कृतं (पिब) अन्तःकरणमनुभवतु ॥३६॥