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या इ॑न्द्र प्र॒स्व॑स्त्वा॒सा गर्भ॒मच॑क्रिरन् । परि॒ धर्मे॑व॒ सूर्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yā indra prasvas tvāsā garbham acakriran | pari dharmeva sūryam ||

पद पाठ

याः । इ॒न्द्र॒ । प्र॒ऽस्वः॑ । त्वा॒ । आ॒सा । गर्भ॑म् । अच॑क्रिरन् । परि॑ । धर्म॑ऽइव । सूर्य॑म् ॥ ८.६.२०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:20 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:20


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शिव शंकर शर्मा

परमात्मा ही जगत् का जीवन है, यह इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र परमदेव ! (याः) जो ये (प्रस्वः) पैदा करनेवाली सर्वगत शक्तियाँ विद्यमान हैं, वे (त्वाम्) तुझको ही (आसा) मुख से (गर्भम्) जीवन (अचक्रिरन्) बनाती हैं। इसका भाव यह है कि जैसे सब पदार्थ मुख से भक्ष्य ग्रहणकर निज-२ जीवन करते हैं, वैसे ही तुझको सब पदार्थ ग्रहण करते हैं। यहाँ दृष्टान्त देते हैं। (इव) जैसे (परि) चारों तरफ से (धर्म) धारण करनेवाले (सूर्यम्) सूर्य को सब पदार्थ धारण करते हैं, इसका भी आशय यह है कि सूर्य तो अपने चारों तरफ के पदार्थों को धारण और पोषण करता हुआ विद्यमान है। ये समस्त पदार्थ सूर्य से ताप और गर्मी आदि वस्तु को पाकर अपनी सत्ता स्थित रखते हैं। तद्वत् सर्व पदार्थ ईश्वर को ही पाकर अपनी-२ सत्ता रखते हैं, ऐसा महान् ईश्वर है ॥२०॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! सकल जगत् का जीवन उसको जान उसी की उपासना से अपने आत्मा को पवित्र बनाओ ॥२०॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (याः, प्रस्वः) जो उत्पादक रश्मियें (त्वा) आपकी शक्ति के आश्रित होकर (आसा) अपने मुख से जलपरमाणुओं को खींचकर (गर्भम्, अचक्रिरन्) गर्भ का धारण करती हैं, जैसे (सूर्यम्, परि, धर्मेव) सूर्य चारों ओर से पदार्थों को धारण किये हुए है ॥२०॥
भावार्थभाषाः - हे परमेश्वर ! जलों की उत्पादक सूर्य्यरश्मि, जो आपकी शक्ति के अश्रित हैं, वे ग्रीष्मऋतु में जलपरमाणुओं को खींचकर मेघमण्डल में एकत्रित करतीं और फिर वे ही जलपरमाणु वर्षाऋतु में मेघ बनकर बरसते और पृथिवी को धनरूपा बनाते हैं ॥२०॥
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शिव शंकर शर्मा

जगतः परमात्मैव जीवनमित्यनया दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! प्रस्वः=प्रसवकर्त्र्यः सर्वगतशक्तयः। याः=इमा विद्यन्ते। ताः। त्वा=त्वामेव। आसा=आस्येन मुखेन। गर्भम्=भक्ष्यं गृहीत्वा। अचक्रिरन्=स्वस्वजीवनं कुर्वन्ति। तथैव सर्वाः पदार्थगतशक्तयस्त्वामेव जीवनत्वेन धारयन्तीत्यर्थः। अत्र दृष्टान्तः−परि=परितः। धर्म=धारकम्। जगतो धारकम् सूर्य्यमिव। यथा सूर्य्यः परितः सर्वं जगद्धत्ते। सर्वं जगत्=सूर्य्यात् तापमौष्ण्यं च लब्ध्वा जीवनं प्राप्नुवन्ति। तथैवेश्वरविषये द्रष्टव्यम् ॥२०॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (याः, प्रस्वः) याः प्रसवित्र्यो रश्मयः (त्वा) त्वच्छक्तिमाश्रित्य (आसा) आस्येन जलं कृष्ट्वा (गर्भम्, अचक्रिरन्) गर्भं दधति (सूर्यम्, परि, धर्मेव) यथा सूर्यः परितो जगद्दधाति तद्वत् ॥२०॥