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देवता: इन्द्र: ऋषि: वत्सः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

ये त्वामि॑न्द्र॒ न तु॑ष्टु॒वुॠष॑यो॒ ये च॑ तुष्टु॒वुः । ममेद्व॑र्धस्व॒ सुष्टु॑तः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye tvām indra na tuṣṭuvur ṛṣayo ye ca tuṣṭuvuḥ | mamed vardhasva suṣṭutaḥ ||

पद पाठ

ये । त्वाम् । इ॒न्द्र॒ । न । तु॒स्तु॒वुः । ऋष॑यः । ये । च॒ । तु॒स्तु॒वुः । मम॑ । इत् । व॒र्ध॒स्व॒ । सुऽस्तु॑तः ॥ ८.६.१२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:12 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:11» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:12


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शिव शंकर शर्मा

फिर इन्द्र की प्रार्थना की जाती है।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (ये) जिन नास्तिक आदि जनों ने (त्वाम्) तुझको (न+तुष्टुवुः) स्तोत्रों से प्रसन्न न किया (ये+च) और जिन (ऋषयः) तत्त्वदर्शीगण ने तेरी (तुष्टुवुः) स्तुति की है, उन दोनों प्रकार के मनुष्यों के मध्य (मम+इत्) मेरे ही स्तोत्रों से (सुष्टुतः) अच्छे प्रकार स्तुति पाकर (वर्धस्व) सबको बढ़ाओ। हे भगवन् ! अज्ञानी जन आपकी स्तुति नहीं करते, ज्ञानी पुरुष आपके गुणों का गान सदा करते ही रहते हैं। हे भगवन् ! मैं भी आपकी स्तुति करता हूँ। सबका अपराध क्षमा करके सबके कल्याण की वृद्धि कीजिये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - आस्तिक और नास्तिक दोनों प्रकार के लोग सदा से चले आते हैं। जो जन श्रद्धालु और विश्वासी हैं, वे अन्तःकरण को ईश्वर में लगाकर शान्तचित्त से ऐसी प्रार्थना करें कि उससे परमात्मा प्रसन्न होकर जगत् का अभ्युदय करे ॥१२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) हे परमात्मन् ! (ये, ऋषयः) जो हममें से सूक्ष्मदर्शी महर्षि (त्वां, न तुष्टुवुः) आपकी स्तुति नहीं करते (च) और (ये, तुष्टुवुः) जो करते हैं, दोनों प्रकार से (सुष्टुतः) सम्यक् स्तुति किये गये आप (मम, इत्, वर्धस्व) हममें वृद्धि को प्राप्त हों ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे परमात्मदेव ! हममें से जो महर्षि आपकी उपासना में सदैव तत्पर रहते और जो नहीं करते हैं, उन दोनों को समान फल प्राप्त कराएँ, क्योंकि वे दोनों ही तप, अनुष्ठान और सम्यक् स्तुतियों से अधिकार प्राप्त कर चुके हैं ॥१२॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनरिन्द्रः प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! ये=नास्तिकाः। त्वाम्। न तुष्टुवुः=स्तोत्रैर्न प्रसादयामासुः। ये च। ऋषयस्तत्त्वदर्शिनो जनाः। त्वाम्। तुष्टुवुः=स्तोत्रमकुर्वन्। तेषां सर्वेषां मध्ये। ममेत्=ममैव स्तोत्रेण। सुष्टुतः=शोभनं स्तुतः सन्। वर्धस्व=वर्धय सर्वानिति शेषः ॥१२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (ये, ऋषयः) ये सूक्ष्मदर्शिनः (त्वां) भवन्तं (न, तुष्टुवुः) न स्तुवन्ति ये च ऋषयः (तुष्टुवुः) स्तुवन्ति (सुष्टुतः) सम्यक्स्तुतः सन् (मम, इत्, वर्धस्व) मदीय एव वृद्धो भव ॥१२॥