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तेन॑ नो वाजिनीवसू॒ पश्वे॑ तो॒काय॒ शं गवे॑ । वह॑तं॒ पीव॑री॒रिष॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tena no vājinīvasū paśve tokāya śaṁ gave | vahatam pīvarīr iṣaḥ ||

पद पाठ

तेन॑ । नः॒ । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । पश्वे॑ । तो॒काय॑ । शम् । गवे॑ । वह॑तम् । पीव॑रीः । इषः॑ ॥ ८.५.२०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:5» मन्त्र:20 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:4» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:20


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शिव शंकर शर्मा

पुनः उसी अर्थ को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (तेन) इस हेतु (वाजिनीवसू) बुद्धि, विद्या, वाणिज्या, यागक्रिया और अन्नादिकों का नाम वाजिनी है। हे वाजिनीधन राजन् और हे अमात्य ! (नः) हमारे (पश्वे) अश्वादि पशुओं (तोकाय) पुत्रादि सन्तानों तथा (गवे) गवादि हितकारी पशुओं के लिये जिससे (शम्) कल्याण हो, वह आप करें तथा (पीवरीः) प्रशस्त प्रवृद्ध (इषः) अन्नादिकों को (वहतम्) हम लोगों के लिये लावें ॥२०॥
भावार्थभाषाः - देश में जिन उपायों से अच्छे पशुओं, सन्तानों और अन्नों की वृद्धि हो, वे कर्तव्य हैं ॥२०॥
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आर्यमुनि

अब ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी से अपने कल्याणार्थ प्रार्थना करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वाजिनीवसू) हे पराक्रमरूप धनवाले ! (तेन) तिस रसपान से प्रसन्न होकर (नः) हमारे (पश्वे) पशु (तोकाय) सन्तान (गवे) विद्या के लिये (शं, वहतं) कल्याण करें और (पीवरीः) प्रवृद्ध (इषः) सम्पत्ति को उत्पन्न करें ॥२०॥
भावार्थभाषाः - हे पराक्रमशील ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप हमारे सिद्ध किये हुए सोमरस का पान करके प्रसन्न हों और आपकी कृपा से हमारे पशु तथा सन्तान निरोग रहकर वृद्धि को प्राप्त हों। हमारी विद्या सदा उन्नत होती रहे और हम बड़े ऐश्वर्य्य को प्राप्त हों, यह हमारी आपसे विनयपूर्वक प्रार्थना है ॥२०॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमर्थमाचष्टे।

पदार्थान्वयभाषाः - तेन हेतुना। हे वाजिनीवसू=वाजिनी=बुद्धिर्विद्या वाणिज्या अन्नादिकञ्च। सैव वसूनि धनानि ययोस्तौ। युवां नोऽस्माकम्। पश्वे=तुरङ्गादिपशवे। तोकाय=सन्तानाय। गवे=गवादिपशुभ्यश्च। येन शम्=कल्याणं भवेत् तत् कुरुतम्। तथा। पीवरीः=प्रशस्ताः। इषोऽन्नानि। वहतमानयतम् ॥२०॥
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आर्यमुनि

अथ तयोः पुनः स्वकल्याणार्थं प्रार्थना कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (वाजिनीवसू) हे पराक्रमधनौ ! (तेन) तेन रसपानेन प्रसन्नः सन् (नः) अस्माकं (पश्वे) पशवे (तोकाय) सन्तानाय (गवे) विद्यायै (शं, वहतं) कल्याणं कुरुतं (पीवरीः) प्रवृद्धा (इषः) सम्पत्तिः च कुरुतम् ॥२०॥