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शं नो॑ भव हृ॒द आ पी॒त इ॑न्दो पि॒तेव॑ सोम सू॒नवे॑ सु॒शेव॑: । सखे॑व॒ सख्य॑ उरुशंस॒ धीर॒: प्र ण॒ आयु॑र्जी॒वसे॑ सोम तारीः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śaṁ no bhava hṛda ā pīta indo piteva soma sūnave suśevaḥ | sakheva sakhya uruśaṁsa dhīraḥ pra ṇa āyur jīvase soma tārīḥ ||

पद पाठ

शम् । नः॒ । भ॒व॒ । हृ॒दे । आ । पी॒तः । इ॒न्दो॒ इति॑ । पि॒ताऽइ॑व । सो॒म॒ । सू॒नवे॑ । सु॒ऽशेवः॑ । सखाऽइ॑व । सख्ये॑ । उ॒रु॒ऽशं॒स॒ । धीरः॑ । प्र । नः॒ । आयुः॑ । जी॒वसे॑ । सो॒म॒ । ता॒रीः॒ ॥ ८.४८.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:48» मन्त्र:4 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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शिव शंकर शर्मा

इस सूक्त में अन्न की प्रशंसा है।

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (वयसः) अन्न (अभक्षि) खाऊँ। हम मनुष्यजाति अन्न खाएँ किन्तु माँस न खाएँ। कैसा अन्न हो, जो (स्वादोः) स्वादु हो, जो (वरिवोवित्तरस्य) सत्कार के योग्य है, जिसको देख कर ही चित्त प्रसन्न हो। पुनः (यम्) जिस अन्न को (विश्वे) सकल (देवाः) श्रेष्ठ (उत) और (मर्त्यासः) साधारण मनुष्य (मधु+ब्रुवन्तः) मधुर कहते हुए (अभि+संचरन्ति) खाते हैं, उस अन्न को हम सब खाएँ। खानेवाले कैसे हों, (सुमेधाः) सुमति और बुद्धिमान् हों और (स्वाध्यः) सुकर्मा स्वाध्यायशील उद्योगी और कर्मपरायण हों ॥१॥
भावार्थभाषाः - इसका आशय यह है कि जो जन, बुद्धिमान्, परिश्रमी, स्वाध्यायनिरत हैं, उनको ही मधुमय स्वादु अन्न प्राप्त होते हैं। जो जन आलसी, कुकर्मी और असंयमी हैं, वे यदि महाराज और महामहा श्रेष्ठी भी हैं, तो भी उन्हें अन्न मधुर और स्वादु नहीं मालूम होते, क्योंकि उनका क्षुधाग्नि अतिशय मन्द हो जाता है, उदराशय बिगढ़ जाता है, परिपाकशक्ति बहुत थोड़ी हो जाती है, इस कारण उन्हें मधुमान् पदार्थ भी अति कटु लगने लगते हैं, उत्तमोत्तम भोज्य वस्तु को भी उनका जी नहीं चाहता। अतः कहा गया है कि परिश्रमी नीरोग और संयमी आदमी ही अन्न का स्वाद ले सकता है। द्वितीय बात इसमें यह है कि मनुष्य और श्रेष्ठ मनुष्यों को उचित है कि माँस, अपवित्र अन्न, जिससे शरीर की नीरोगिता में बाधा पड़े और जो देखने में घृणित हो, वैसे अन्न न खाएँ ॥१॥
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शिव शंकर शर्मा

अस्मिन् सूक्तेऽन्नस्य प्रशंसाऽस्ति।

पदार्थान्वयभाषाः - अहम्। वयसः=अन्नस्य। अत्र कर्मणि षष्ठी। अन्नमित्यर्थः। अभक्षि=भक्षयेम। वयं सर्वे अन्नं भक्षयेमहि। कीदृशस्य वयसः। स्वादोः। पुनः। वरिवोवित्तरस्य=अतिशयेन सत्कारं लभमानस्य। पुनः। यम्=यदन्नम्। विश्वेदेवाः=सर्वे श्रेष्ठाः। उत मर्त्यासः=मर्त्याः। मधु ब्रुवन्तः=इदमन्नं मधु इति कथयन्तः। अभिसंचरन्ति=भक्षयन्ति। अहं कीदृशः। सुमेधाः=सुमतिः। पुनः। स्वाध्यः=सुकर्मा ॥१॥