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बि॒भया॒ हि त्वाव॑त उ॒ग्राद॑भिप्रभ॒ङ्गिण॑: । द॒स्माद॒हमृ॑ती॒षह॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bibhayā hi tvāvata ugrād abhiprabhaṅgiṇaḥ | dasmād aham ṛtīṣahaḥ ||

पद पाठ

बि॒भय॑ । हि । त्वाऽव॑तः । उ॒ग्रात् । अ॒भि॒ऽप्र॒भ॒ङ्गिनः॑ । द॒स्मात् । अ॒हम् । ऋ॒ति॒ऽसहः॑ ॥ ८.४५.३५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:45» मन्त्र:35 | अष्टक:6» अध्याय:3» वर्ग:48» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:6» मन्त्र:35


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (त्वावतः) तुमसे रक्षित जन का (दभ्रम्+चित्+हि) बहुत थोड़ा भी (कृतम्) कृत कर्म (क्षमि+अधि) इस पृथिवी पर (शृण्वे) विख्यात हो जाता है, फैल जाता है, इस हेतु (ते+मनः) आपका मन अर्थात् आपकी वैसी कृपा मुझमें भी (जिगातु) प्राप्त होवे। मेरी भी कीर्ति पृथिवी पर फैले सो करें ॥३२॥
भावार्थभाषाः - इसका आशय विस्पष्ट है। जिसके ऊपर परमात्मा की कृपा होती है, वह पृथिवी पर सुप्रसिद्ध हो जाता है। यह दृश्य देख उपासक कहता है कि हे इन्द्र ! मैं भी आपका पात्र बनकर देशविख्यात होऊँ इत्यादि। ऐसी शुभ इच्छा बहुत पुरुषों की होती है। यह मानवस्वभाव है, अतः ऐसी ऐसी प्रार्थना वेद में आती हैं ॥३२॥
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! त्वावतः=त्वया रक्षितस्य पुरुषस्य। दभ्रं चिद्+हि=स्वल्पमपि। कृतं=कर्म। अधिक्षमि= क्षमायामधि। शृण्वे=विश्रुतं भवति। अतो हे भगवन् ! ते=तव। मनः मामपि। जिगातु=गच्छतु ॥३२॥