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अ॒श्वी र॒थी सु॑रू॒प इद्गोमाँ॒ इदि॑न्द्र ते॒ सखा॑ । श्वा॒त्र॒भाजा॒ वय॑सा सचते॒ सदा॑ च॒न्द्रो या॑ति स॒भामुप॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aśvī rathī surūpa id gomām̐ id indra te sakhā | śvātrabhājā vayasā sacate sadā candro yāti sabhām upa ||

पद पाठ

अ॒श्वी । र॒थी । सु॒ऽरू॒पः । इत् । गोऽमा॑न् । इत् । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । सखा॑ । श्वा॒त्र॒ऽभाजा॑ । वय॑सा । स॒च॒ते॒ । सदा॑ । च॒न्द्रः । या॒ति॒ । स॒भाम् । उप॑ ॥ ८.४.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:4» मन्त्र:9 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:31» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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शिव शंकर शर्मा

इससे प्रार्थना का फल कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (ते) तेरा (सखा) मित्र अर्थात् उपासक और आज्ञाकारी जन (अश्वी+इत्) सदा बहुत अच्छे-२ घोड़ों से युक्त ही रहता है (रथी+इत्) अनेक रथों से उपेत ही रहता है (सुरूपः+इत्) सुरूपवान् ही होता है (गोमान्+इत्) गौओं से युक्त ही रहता है (सदा) सर्वदा (श्वात्रभाजा) यशोधारी (वयसा) आयु से (सचते) युक्त रहता है। इसी कारण वह (चन्द्रः) सबका आह्लादक होकर (सभाम्) सभ्यसमाजों में (उपयाति) जाता है यद्वा सभ्यसमाज के निकट पहुँचता है ॥९॥
भावार्थभाषाः - इसका आशय यह है कि जो परमात्मा की उपासना करता है, उसके सब कर्म नियत अविच्छिन्न और मन से अनुष्ठित होते हैं, अतः वे शीघ्र पुष्पों और फलों से युक्त होते हैं और ऐसे उपासक की दिन-२ उन्नति होती जाती है ॥९॥
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आर्यमुनि

अब कर्मयोगी से मित्रता करनेवाले को फल कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (ते, सखा) आपका मित्र (अश्वी) अश्वयुक्त (रथी) रथी=रथयुक्त (सुरूपः, इत्) सुरूपवान् (गोमान्, इत्) गवादियुक्त होकर (श्वात्रभाजा) धनों के सहित (वयसा) अन्न से (सदा) सदैव (सचते) संगत होता है (चन्द्रः) चन्द्रमा के समान द्युतिमान् होकर (सभाम्) सभा को (उपयाति) जाता है ॥९॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष कर्मयोगी को प्रसन्न रखकर उससे मित्रता करते हैं, वे अश्व, रथ तथा गौ आदि पशु और अन्नादि धनों से युक्त होकर सदैव आनन्द भोगते हैं। वे बड़ी आयुवाले होते और स्वरूपवान् तथा प्रतिष्ठित हुए सभा-समाज में मान को प्राप्त होते हैं, इसलिये प्रतिष्ठाभिलाषी पुरुष को उक्त गुणसम्पन्न कर्मयोगी से मित्रता करके सदा लाभ उठाना चाहिये ॥९॥
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शिव शंकर शर्मा

अनया प्रार्थनाफलमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! ते=तव। सखा=मित्रभूत आज्ञायां वर्तमानो जनः। अश्वी इत्=प्रशस्तैर्बहुभिरश्वैरुपेत एव भवति। रथी इत्=अनेकै रथैर्युक्त एव भवति। सुरूप इत्=शोभनरूप एव भवति। गोमान्=इत् बह्वीभिर्गोभिः संयुक्त एव भवति। अश्वरथसुरूपगवादिवस्तुभिर्न कदापि वियुक्तो भवतीत्यर्थः। अपि च। श्वात्रभाजा=यशोयुक्तेन। वयसा=आयुषा। सदा। सचते=संमिलितो भवति। षच समवाये। अत एव। ईदृग्जनः। चन्द्रः=सर्वेषामाह्लादको भूत्वा। सभाम्= सभ्यपरिषदम्। उपयाति=उपगच्छति ॥९॥
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आर्यमुनि

अथ कर्मयोगिमैत्रीफलमुच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (ते, सखा) तव मित्रम् (अश्वी) अश्वयुक्तः (रथी) रथयुक्तः (सुरूपः, इत्) शोभनरूपवानेव (गोमान्, इत्) गवादियुक्त एव सन् (श्वात्रभाजा) धनसहितेन (वयसा) अन्नेन (सचते) संगतो भवति (सदा) शश्वत् (चन्द्रः) चन्द्र इव द्युतिमान् भूत्वा (सभाम्) संसदम् (उपयाति) उपगच्छति ॥९॥