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स॒हस्रे॑णेव सचते यवी॒युधा॒ यस्त॒ आन॒ळुप॑स्तुतिम् । पु॒त्रं प्रा॑व॒र्गं कृ॑णुते सु॒वीर्ये॑ दा॒श्नोति॒ नम॑उक्तिभिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sahasreṇeva sacate yavīyudhā yas ta ānaḻ upastutim | putram prāvargaṁ kṛṇute suvīrye dāśnoti namaüktibhiḥ ||

पद पाठ

स॒हस्रे॑णऽइव । स॒च॒ते॒ । य॒वि॒ऽयुधा॑ । यः । ते॒ । आन॑ट् । उप॑ऽस्तुतिम् । पु॒त्रम् । प्रा॒व॒र्गम् । कृ॒णु॒ते॒ । सु॒ऽवीर्ये॑ । दा॒श्नोति॑ । नम॑ऽउक्तिऽभिः ॥ ८.४.६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:4» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:31» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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शिव शंकर शर्मा

ईश्वरोपासक क्या-२ पाता है, यह इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! (यः) जो विद्वान् (ते) तेरी (उपस्तुतिम्) साहाय्य (आनट्) प्राप्त करता है, वह (सहस्रेण+इव) मानो सहस्रों प्रकार के (यवीयुधा) युद्धबल से (सचते) सम्मिलित होता है और जो (नमउक्तिभिः) नमस्कार वचनों से=सत्कारपूर्वक (दाश्नोति) दरिद्र पुरुषों को दान देता है, वह (प्रावर्गम्) शत्रुओं को हटानेवाले (सुवीर्य्ये) शोभनवीर्य्ययुक्त पुत्र को (कृणुते) उत्पन्न करता है। अथवा (सुवीर्य्ये) महासंग्राम के लिये शत्रुविजेता अपत्य पाता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! ईश्वर की सहायता वे ही प्राप्त कर सकते हैं, जो उसकी आज्ञा में चलते हैं। उसी की कृपा वास्तव में महाबल है। जो ईश्वर की कृपा का पात्र है, उसको जगत् में सम्राट् भी गिरा नहीं सकता, उसके उपासक के पुत्रादि भी महाबलिष्ठ और विजेता होते हैं। अतः उसी की कृपा के पात्र बनो, शुभकर्म करके उसके आशीर्वाद के भाजन होओ ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यवियुधा) वह पुरुष विद्युत् के समान युद्ध करनेवाला होकर (सहस्रेणेव) सहस्रों बलों से (सचते) संगत होता है, (यः) जो (ते) आपकी (उपस्तुतिं) अल्प स्तुति को भी (आनट्) करता है और जो (नमउक्तिभिः) नम्र वचनों से (दाश्नोति) आपका भाग देता है वह (सुवीर्ये) सुन्दर पराक्रमवाले आपकी अध्यक्षता में (पुत्रं) अपनी सन्तान को (प्रावर्गं) अतिशय अनिवार्य (कृणुते) बनाता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे युद्धविद्याविशारद कर्मयोगिन् ! आपकी स्तुति द्वारा आपसे शिक्षा प्राप्त किया हुआ पुरुष अति तीव्र युद्ध करनेवाला तथा सहस्रों योद्धाओं से युक्त होता है और जो नम्रतापूर्वक आपका सत्कार करता है, वह स्वयं युद्धविशारद होता और कर्मयोगी की अध्यक्षता में रहने के कारण उसकी सन्तान भी संग्राम में कुशल होती है अर्थात् उसको कोई युद्ध में निवारण=हटा नहीं सकता ॥६॥
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शिव शंकर शर्मा

ईशोपासकः किं किं लभत इत्यनया दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! यो विद्वान्। ते=तव। उपस्तुतिम्=साहाय्यम्। आनट्=व्याप्नोति लभते। सः। सहस्रेण इव=अनन्तेन। सहस्रशब्दोऽनन्तवाची। यवीयुधा=युद्धबलेन। सचते= समवेतः संमिलितो भवति। षच समवाये। यश्च पुरुषः। नमउक्तिभिः=नमस्कारवचनैः सत्कारपूर्वकम्। दाश्नोति= दरिद्रेभ्यो ददाति। स खलु। प्रावर्गम्=प्रकर्षेण शत्रूणां प्रवर्जयितारं निरासयितारम्। सुवीर्य्ये=सुवीर्य्यं शोभनवीर्य्योपेतम्। द्वितीयार्थे सप्तमी। पुत्रम्। कृणुते=जनयति। यद्वा। सुवीर्य्ये शोभनवीर्य्ययुक्ते संग्रामे पुत्रं कृणुते ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यवियुधा) विद्युदिव योद्धा सन् स पुरुषः (सहस्रेणेव) सहस्रप्रकारकेण बलेन (सचते) संगतो भवति (यः) यः पुरुषः (ते) तव (उपस्तुतिं) उपस्तोत्रं (आनट्) प्राप्नोति, यश्च (नमउक्तिभिः) नमोवचनैः (दाश्नोति) भवद्भागं ददाति सः (सुवीर्ये) शोभनपराक्रमसहिते भवति पालके (पुत्रं) स्वसन्तानं (प्रावर्गं) प्रकर्षेण शत्रूणां वर्जयितारं (कृणुते) करोति ॥६॥