वांछित मन्त्र चुनें

धी॒भिः सा॒तानि॑ का॒ण्वस्य॑ वा॒जिन॑: प्रि॒यमे॑धैर॒भिद्यु॑भिः । ष॒ष्टिं स॒हस्रानु॒ निर्म॑जामजे॒ निर्यू॒थानि॒ गवा॒मृषि॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dhībhiḥ sātāni kāṇvasya vājinaḥ priyamedhair abhidyubhiḥ | ṣaṣṭiṁ sahasrānu nirmajām aje nir yūthāni gavām ṛṣiḥ ||

पद पाठ

धी॒भिः । सा॒तानि॑ । का॒ण्वस्य॑ । वा॒जिनः॑ । प्रि॒यऽमे॑धैः । अ॒भिद्यु॑ऽभिः । ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । अनु॑ । निःऽम॑जाम् । अ॒जे॒ । निः । यू॒थानि॑ । गवा॑म् । ऋषिः॑ ॥ ८.४.२०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:4» मन्त्र:20 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:33» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:20


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

इस देह में परमात्मा ने क्या दिया है, यह इससे दिखलाया जाता है।

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋषिः) मैं उपासक (षष्ठि१म्+सहस्रा) ६०००० साठ सहस्र (निर्मजाम्) अति शुद्ध (गवाम्+यूथानि) इन्द्रियों के समूहों को (अनु) पश्चात् (नि+अजे) पाया हूँ। वे यूथ कैसे हैं (वाजिनः२) विज्ञानवान् (काण्व३स्य) मेरी आत्मा के (अभिद्युभिः) शरीर में चारों तरफ विकाशमान (प्रियमेधैः४) प्राणों से (धी५भिः) कर्मों के कारण (सातानि) प्रदत्त जो इन्द्रियसमूह, उनको मैं पाया हूँ ॥२०॥
भावार्थभाषाः - इस देह में कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय और अन्तःकरण विद्यमान हैं। ये ईश्वरप्रदत्त महादान हैं। इनको ही अच्छे प्रकार जान ऋषि अद्भुत कर्म करते हैं, इनको ही तीक्ष्ण करके मनुष्य ऋषि होते हैं ॥२०॥
टिप्पणी: १−षष्ठि सहस्र ६००००=यहाँ पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन, ये छः इन्द्रियें हैं। जिस कारण विज्ञानी और भक्तजन इन इन्द्रियों से बहुत कार्य लेते हैं, अतः उनके लिये वे ही छः इन्द्रिय ६०००० सहस्र के तुल्य हैं, अतः यहाँ षष्ठिसहस्र की चर्चा है। २−वाजी=वज धातु गत्यर्थ है। गति के अर्थ ज्ञान, गमन और प्राप्ति, ये तीनों होते हैं। ३−काण्व=ग्रन्थकर्ता का नाम कण्व, तत्सम्बन्धी काण्व अर्थात् उपासकसम्बन्धी आत्मा। ४−प्रियमेध=प्राण, वायु, मरुत। प्राणों का प्रिय आत्मा और परमात्मा ह, अतः वे प्रियमेध कहाते हैं। ५−धी=वेद में धी शब्द कर्मवाचक आता है, निघण्टु २।१ ॥२०॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

अब कर्मयोगी का दान देना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रियमेधैः) यज्ञप्रिय (अभिद्युभिः) अधिक कान्तिवाले (धीभिः) विद्वानों द्वारा (सातानि) सेवित (काण्वस्य, वाजिनः) मेधाविपुत्र बलवान् कर्मयोगी की (षष्टिं, सहस्रा) आठ सहस्र (निर्मजां, गवां, यूथानि) शुद्ध गायों के यूथों को (ऋषिः) ऋषि ने (निः) निरन्तर (अन्वजे) पाया ॥२०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में दानशील महात्मा कर्मयोगी का दान कथन किया गया है कि यज्ञप्रिय, सुदर्शन, विद्वानों का सेवन करनेवाला तथा मेधावीपुत्र बलवान् कर्मयोगी ने साठ सहस्र उत्तम गायों के यूथों को ऋषि के लिये सदा को दान दिया ॥२०॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

अस्मिन् देहे परमात्मना किं दत्तमस्तीति प्रदर्श्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - अहमृषिरुपासकः। गवाम्=इन्द्रियाणाम्। यूथानि=बहून् समूहान्। अनु=पश्चात्। नि+अजे=नितरां प्राप्तवानस्मि। अज गतिक्षेपणयोः। कतीत्यपेक्षायाम्। षष्ठिम्=षष्ठिसंख्याकानि। सहस्रा=सहस्राणि। कीदृशां गवाम्। निर्मजाम्=निःशेषेण शुद्धानाम्। कीदृशानि यूथानि। वाजिनः=ज्ञानवतः। काण्वस्य=गमनशीलस्य आत्मनः सम्बन्धिभिः। अभिद्युभिः=अभितः परितः शरीरे विकाशमानैः। प्रियमेधैः=प्राणैः कर्तृभिः। धीभिः=कर्मभिर्हेतुभिः। सातानि=शरीरे संविभक्तानि ॥२०॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

अथ तस्य गवादिदानं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रियमेधैः) प्रिययज्ञैः (अभिद्युभिः) अभितो दीप्तिमद्भिः (धीभिः) विद्वद्भिः (सातानि) सेवितानि (काण्वस्य, वाजिनः) मेधाविपुत्रस्य बलवतः (निर्मजां, गवाम्, यूथानि) शुद्धानां गवां यूथानि (षष्टिम्, सहस्रा) षष्टिं सहस्राणि (ऋषिः) ऋषिरहम् (निः) निःशेषेण (अन्वजे) प्राप्तवान् ॥२०॥