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स्थू॒रं राध॑: श॒ताश्वं॑ कुरु॒ङ्गस्य॒ दिवि॑ष्टिषु । राज्ञ॑स्त्वे॒षस्य॑ सु॒भग॑स्य रा॒तिषु॑ तु॒र्वशे॑ष्वमन्महि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sthūraṁ rādhaḥ śatāśvaṁ kuruṅgasya diviṣṭiṣu | rājñas tveṣasya subhagasya rātiṣu turvaśeṣv amanmahi ||

पद पाठ

स्थू॒रम् । राधः॑ । श॒तऽअ॑श्वम् । कु॒रु॒ङ्गस्य॑ । दिवि॑ष्टिषु । राज्ञः॑ । त्वे॒षस्य॑ । सु॒ऽभग॑स्य । रा॒तिषु॑ । तु॒र्वशे॑षु । अ॒म॒न्म॒हि॒ ॥ ८.४.१९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:4» मन्त्र:19 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:33» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:19


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शिव शंकर शर्मा

इससे कृतज्ञता दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (कुरुङ्ग१स्य) भक्तानुग्रहकारक (राज्ञः२) राजराजेश्वर यद्वा सर्वत्र विराजमान (त्वेषस्य) प्रकाशमय और (सुभगस्य) सर्वधनोपेत उस परमात्मा के दिए हुए (स्थूरम्) बहुत (शताश्वम्) अनन्त अश्वादि पशुओं से युक्त (राधः) प्रशस्तधन (तुर्वशेषु) मनुष्यों के मध्य (अमन्महि) हम उपासक पाये हुए हैं। (दिविष्टिषु३) जिन मनुष्यों के शुभकर्म दिव्य हैं। तथा (रातिषु४) जो सदा लाभ पहुँचानेवाले हैं, उन मनुष्यों के मध्य मैं भी ईश्वर का कृपापात्र हूँ। हम भी दिव्य कर्म करनेवाले और दान देनेवाले हैं ॥१९॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने जो धन दिया है उसी को बहुत मानता हुआ सदा प्रसन्न रहे, कभी उपालम्भ न करे, क्योंकि अज्ञानी मनुष्य ईश्वरप्रदत्त धन को न जान झखता रहता है। हे मनुष्यो ! तुममें कैसा ज्ञान विद्यमान है, इसको वारंवार विचारो और उसी से सब सिद्ध करो ॥१९॥
टिप्पणी: १−कुरुङ्ग=कुरुम्+ग=व्याकरण के अनुसार समास होने पर भी कुरु शब्द कुरुम् बन जाता है, जैसे−प्रियंवदा, धनञ्जय, वशंवद, कूलंकषा इत्यादि। जो सदा ईश्वर की आज्ञा में रहकर स्व-स्व कार्य्य का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें कुरु कहते हैं। कुरुओं के निकट जो जाय, वह कुरुङ्ग=भक्तों पर अनुग्रह करनेवाला परमात्मा। २−राजा=जो देदीप्यमान शोभायमान विराजमान हो, उसे राजा कहते हैं। “राजृ दीप्तौ” धातु है। परमेश्वर सर्वत्र विराजमान है, अतः वह राजा है इत्यादि। ३−दिविष्टि=दिव्+इष्टि। दिव्=दिव्य। इष्टि=याग। जिनके दिव्य याग हैं, वे दिविष्टि। ४−राति=वेद में एक ही शब्द कहीं विशेष्यरूप से कहीं विशेषणरूप से आया करता है। यहाँ “रा दाने” दानार्थक रा धातु से राति बना है, अतः इसका दाता अर्थ है ॥१९॥ * यहाँ से सायण आदि पूर्ववत् इतिहास मानते हैं, परन्तु जैसे पूर्व सूक्तों के अन्त में दो चार ऋचाओं से अध्यात्मवर्णन कहा गया है, वैसे ही यहाँ पर भी कहा जाता है। उपासना करने से क्या-२ लाभ है, ईश्वर ने हम मनुष्यों को क्या-क्या अलभ्य पदार्थ दिये हैं, ईदृग् विषयों का अन्त में निरूपण रहता है, इसलिये यह इतिहास नहीं, किन्तु अध्यात्मवर्णन है।
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आर्यमुनि

अब कर्मयोगी के विमानादि ऐश्वर्य का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (दिविष्टिषु) अन्तरिक्षविषयक गमन की कामना में लगे हुए (कुरुङ्गस्य) ऋत्विजों के पास जानेवाले (सुभगस्य) सौभाग्ययुक्त (त्वेषस्य, राज्ञः) दीप्तिमान् राजा के (शताश्वम्, स्थूरम्) सैकड़ों अश्वों की शक्तिवाला अतिस्थूल (राधः) विमानादि ऐश्वर्य है (तुर्वशेषु) मनुष्यों के मध्य में (रातिषु) दानों के विषय में (अमन्महि) हम उदारतया उसको जानते हैं ॥१९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में कर्मयोगी का ऐश्वर्य्य कथन किया है कि वह विमान द्वारा अन्तरिक्ष में गमन करता तथा उसी में चढ़कर ऋत्विजों से मिलता है। वह विमान कैसा है ? ऐश्वर्य्यसम्पन्न राजा के सैकड़ों अश्वों की शक्तिवाला अर्थात् अत्यन्त वेग से चलनेवाला और बहुत स्थूल बना हुआ है, वह कर्मयोगी दानविषयक उदारता में प्रसिद्ध और कर्मों द्वारा सबको धनाढ्य बनाने में कुशल है ॥१९॥
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शिव शंकर शर्मा

अनया कृतज्ञतां प्रकाशयति।

पदार्थान्वयभाषाः - कुरुङ्गस्य=कुर्वन्ति=ईश्वराज्ञायां वर्तमानाः सन्तः स्वं स्वं कार्य्यं येऽनुतिष्ठन्ति ते कुरुवो यागानुष्ठायिनः। तान् अनुग्रहीतुं यो गच्छति स कुरुङ्गः। तस्य भक्तानुग्रहकारकस्य। त्वेषस्य=दीप्तिमतः। राज्ञः= राजमानस्य=शोभमानस्य। सुभगस्य= शोभनधनोपेतस्य, तस्येन्द्रस्य। दत्तम्। स्थूरम्=स्थूलं भूयिष्ठम्। शताश्वम्=बहुविधाश्वादिपशुयुक्तम्। राधः=धनम्। दिविष्टिषु=दिवः प्रकाशयित्र्यो दिव्या वा इष्टयो यागा येषां तेषु। तथा। रातिषु=दातृषु। तुर्वशेषु=मनुष्येषु मध्ये। वयममन्महि=अज्ञासिष्म अलभामहीत्यर्थः ॥१९॥
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आर्यमुनि

अथ कर्मयोगिनः दिव्ययानं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (दिविष्टिषु) अन्तरिक्षमार्गेण गमनकामनासु सक्तस्य (कुरुङ्गस्य) ऋत्विजः प्रतिगमनशीलस्य (सुभगस्य) सौभाग्ययुक्तस्य (त्वेषस्य, राज्ञः) दीप्तिमतो राज्ञः (शताश्वम्, स्थूरम्) शताश्वबलसहितं बहुलम् (राधः) ऐश्वर्यमस्ति (तुर्वशेषु) मनुष्येषु मध्ये (रातिषु) दानेषु विषये (अमन्महि) अज्ञासिष्म ॥१९॥