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र॒थे॒ष्ठाया॑ध्वर्यव॒: सोम॒मिन्द्रा॑य सोतन । अधि॑ ब्र॒ध्नस्याद्र॑यो॒ वि च॑क्षते सु॒न्वन्तो॑ दा॒श्व॑ध्वरम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ratheṣṭhāyādhvaryavaḥ somam indrāya sotana | adhi bradhnasyādrayo vi cakṣate sunvanto dāśvadhvaram ||

पद पाठ

र॒थे॒ष्ठाय॑ । अ॒ध्व॒र्य॒वः॒ । सोम॑म् । इन्द्रा॑य । सो॒त॒न॒ । अधि॑ । ब्र॒ध्नस्य॑ । अद्र॑यः । वि । च॒क्ष॒ते॒ । सु॒न्वन्तः॑ । दा॒शुऽअ॑ध्वरम् ॥ ८.४.१३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:4» मन्त्र:13 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:32» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:13


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शिव शंकर शर्मा

अचेतन भी उसके महत्त्व को प्रसिद्ध करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अध्वर्य्यवः) हे कर्म्मोपासको ! (रथेष्ठाय) अतिरमणीय संसाररूप रथ के ऊपर स्थित (इन्द्राय) परमात्मा के लिये (सोमम्+सोतन) शुद्ध पदार्थ उत्पन्न कीजिये। परमात्मा के उद्देश से सब वस्तु पवित्र बनाओ। उत्तर अर्धर्च से उसका महत्त्व दिखलाया जाता है। ये (अद्रयः) पर्वत आदि स्थावर पदार्थ रसनारहित होने पर भी (ब्रध्नस्य+अधि) पृथिवीरूप मूल के ऊपर स्थित होकर (दाश्वध्वरम्) आनन्दप्रद याग को (विचक्षते) प्रकाशित कर रहे हैं। पुनः (सुन्वन्तः) मानो मनुष्यवत् यज्ञ सम्पादन करते हुए दीखते हैं ॥१३॥
भावार्थभाषाः - ये स्थावर पर्वत आदि भी अध्वर्यु के समान मानो यज्ञ कर रहे, ईश्वर के महत्त्व दिखला रहे और उनके समान ही मानो, स्वोत्पन्न बहुत सी वस्तुएँ जगत् को दे रहे हैं। हे मनुष्यो ! तुम भी सर्व वस्तु को परमात्मा के उद्देश से प्रसिद्ध करो ॥१३॥
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आर्यमुनि

अब रक्षार्थ आये हुए कर्मयोगी की स्तुति करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अध्वर्यवः) हे याज्ञिक लोगो ! (रथेष्ठाय, इन्द्राय) रथ में स्थित ही कर्मयोगी के लिये (सोमं) सोमरस को (सोतन) अभिषुत कीजिये (ब्रध्नस्य) महान् इन्द्र के (अद्रयः) शस्त्र (दाश्वध्वरं) यजमान के यज्ञ को (सुन्वन्तः) निष्पादित करते हुए (विचक्षते) विशेषरूप से शोभित हो रहे हैं ॥१३॥
भावार्थभाषाः - यजमान की ओर से कथन है कि याज्ञिक लोगो ! रथ में स्थित कर्मयोगी को सोमरस अर्पण कीजिये। कर्मयोगी के दिये हुए अस्त्र-शस्त्रों से यज्ञस्थान विशेषरूप से सुशोभित हो रहा है। हमारा कर्तव्य है कि यज्ञरक्षार्थ आये हुए कर्मयोगी का विशेषरूप से सत्कार करें ॥१३॥
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शिव शंकर शर्मा

अचेतना अपि तस्य महत्त्वं प्रख्यापयन्ति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्वर्यवः=कर्मोपासकाः। रथेष्ठाय=अतिरमणीये संसारात्मके रथे याने तिष्ठतीति रथेष्ठः। सुपि स्थ इति क प्रत्ययः। तस्मै सर्वव्यापकाय। इन्द्राय=महेशाय। सोमम्=शुद्धद्रव्यम्। सोतन=अभिषुणुत=उत्पादयत। परमात्मानमुद्दिश्य सर्वं वस्तु पवित्रतमं जनयत। तस्य महत्त्वमुत्तरेणार्धर्चेन दर्शयति। यथा−इमे। अद्रयः=पर्वतादयः स्थावरा रसनारहिता अपि। ब्रध्नस्य अधि=मूलस्योपरि स्थिताः सन्तः। दाश्वध्वरम्=दाशतीति दाशुर्दाता। दाशृ दाने। दाशुश्चासावध्वरः दाश्वध्वरस्तम्। आनन्दसूचकमध्वरं यागम्। विचक्षते=विशेषेण प्रकाशयन्ति। किं कुर्वन्तः। सुन्वन्तः=मनुष्यवद् यज्ञं कुर्वन्तः ॥१३॥
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आर्यमुनि

अथ रक्षार्थमागतः कर्मयोगी स्तूयते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अध्वर्यवः) हे याज्ञिकाः ! (रथेष्ठाय, इन्द्राय) रथे स्थिताय कर्मयोगिणे (सोमम्) सोमरसं (सोतन) (अभिषुणुत ब्रध्नस्य) महतस्तस्य (अद्रयः) शस्त्राणि (दाश्वध्वरं, सुन्वन्तः) यजमानयज्ञं सम्पादयन्तः (अधि, विचक्षते) अधिकं शोभन्ते ॥१३॥