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अ॒यं स॒हस्र॒मृषि॑भि॒: सह॑स्कृतः समु॒द्र इ॑व पप्रथे । स॒त्यः सो अ॑स्य महि॒मा गृ॑णे॒ शवो॑ य॒ज्ञेषु॑ विप्र॒राज्ये॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ sahasram ṛṣibhiḥ sahaskṛtaḥ samudra iva paprathe | satyaḥ so asya mahimā gṛṇe śavo yajñeṣu viprarājye ||

पद पाठ

अ॒यम् । स॒हस्र॑म् । ऋषि॑ऽभिः । सहः॑ऽकृतः । स॒मु॒द्रःऽइ॑व । प॒प्र॒थे॒ । स॒त्यः । सः । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । गृ॒णे॒ । शवः॑ । य॒ज्ञेषु॑ । वि॒प्र॒ऽराज्ये॑ ॥ ८.३.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:25» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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शिव शंकर शर्मा

इसकी महिमा दिखलाई जाती है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (अयम्) प्रसिद्धवत् सर्वत्र भासमान यह इन्द्रवाच्य परमात्मा (सहस्रम्) सहस्र=बहुत (ऋषिभिः) तत्त्वद्रष्टा पुरुषों से (सहस्कृतः) बलनिमित्त पूजित होता है और जो (समुद्रः+इव) आकाश के समान (पप्रथे) सर्वत्र व्यापक है (अस्य) इस इन्द्र का (सः) परम प्रसिद्ध वह (सत्यः) सत्य (महिमा) महत्त्व और (शवः) बल (यज्ञेषु) शुभकर्मों में तथा (विप्रराज्ये) विज्ञानी पुरुषों के राज्य में (गृणे) प्रशंसित होते हैं, तुम भी उसी को गाओ ॥४॥
भावार्थभाषाः - यह सम्पूर्ण जगत् मिलकर भी परमात्मा की महिमा को समाप्त नहीं कर सकता। आकाश का अन्त संभव है, परन्तु उस अनन्तदेव का कहीं अन्त नहीं। तथापि वह हमारी सखा के समान रक्षा करता है। ईदृश ईश को भजो ॥४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सहस्रं, ऋषिभिः) अनेक सूक्ष्मदर्शियों द्वारा (सहस्कृतः) बलप्राप्त (अयं) यह कर्मयोगी (समुद्रः, इव) समुद्र के समान व्यापक होकर (पप्रथे) प्रसिद्धि को प्राप्त होता है (सः, सत्यः, अस्य, महिमा) वह सत्य=स्थिर इसकी महिमा और (शवः) बल (विप्रराज्ये) मेधावियों के राज्य में (यज्ञेषु) यज्ञों में (गृणे) स्तुति किये जाते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि वह कर्मयोगी, जो अनेक ऋषियों द्वारा धनुर्विद्या प्राप्त करके अपने बलप्रभाव से सर्वत्र विख्यात होता है, वह सारे देश में पूजा जाता है और अपने स्थिर बल तथा पराक्रम द्वारा विद्वानों में सत्कारार्ह होता और यज्ञों में सब याज्ञिक लोग उसकी स्तुति करते हैं ॥४॥
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शिव शंकर शर्मा

अस्य महिमा प्रदर्श्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! अयम्=प्रसिद्धवद्भासमान, इन्द्राभिधेय ईशः। सहस्रम्=सहस्रेण सहस्रसंख्याकैः। ऋषिभिः=तत्त्वद्रष्टृभि- रतीन्द्रियज्ञानैर्मानवैः। सहस्कृतः=सहसा बलेन पूजितः। पुनः। समुद्र इव=आकाश इव। समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम। पप्रथे=प्रथितो व्यापकोऽस्ति। अस्य। सः=प्रसिद्धः। सत्यो महिमा। शवो बलम्। यज्ञेषु=शुभकर्मसु। तथा। विप्रराज्ये=विप्राणां ज्ञानिनां राज्ये शास्त्रे। गृणे स्तूयते यूयमपि तमेव स्तुत ॥४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सहस्रं, ऋषिभिः) अनेकैः सूक्ष्मदर्शिभिः (सहस्कृतः) बलित्वं प्रापितः (अयं) अयं कर्मयोगी (समुद्रः, इव) जलधिरिव व्यापकत्वात् (पप्रथे) प्रसिद्धः, (सः, सत्यः, अस्य, महिमा) स स्थिरोऽस्य प्रतापः (शवः) बलं च (विप्रराज्ये) मेधाविराज्ये (यज्ञेषु) यागेषु मध्ये (गृणे) स्तूयते ॥४॥