रोहि॑तं मे॒ पाक॑स्थामा सु॒धुरं॑ कक्ष्य॒प्राम् । अदा॑द्रा॒यो वि॒बोध॑नम् ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
rohitam me pākasthāmā sudhuraṁ kakṣyaprām | adād rāyo vibodhanam ||
पद पाठ
रोहि॑तम् । मे॒ । पाक॑ऽस्थामा । सु॒ऽधुर॑म् । क॒क्ष्य॒ऽप्राम् । अदा॑त् । रा॒यः । वि॒ऽबोध॑नम् ॥ ८.३.२२
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:22
| अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:29» मन्त्र:2
| मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:22
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शिव शंकर शर्मा
फिर उसी विषय को कहते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - जीव ने कौन धन दिया है, इस ऋचा से यह दिखलाया जाता है। यहाँ मन का अश्वरूप से वर्णन है, यथा−(पाकस्थामा) इस शारीरिक जीव ने (मे) मुझको (रोहित१म्) लोहितवर्ण मन (अदात्) दिया है अर्थात् मेरा संस्कृत जीवात्मा मन को वशीभूत बना कर उससे कार्य लेता है। मेरा मन चञ्चल नहीं है, यह आशय है। वह मन कैसा है (सुधुर२म्) जिसकी शरीररूपा शोभायमाना धुरा है। पुनः (कक्ष्यप्रा३म्) ज्ञान-विज्ञान से सुपुष्ट है। पुनः (रायः विबोधनम्) विवेकरूप धन का बोधक है। ऐसा महादान मुझको जीवात्मा देता है ॥२२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! प्रथम आत्मा को अपने वश में करो। जब यह, जीव निरर्गल हो जाता है, तब सब इन्द्रियाँ परम चपल हो जाती हैं। मन भी विक्षिप्त हो जाता है। मन के विक्षिप्त होने पर किसी वस्तु को उपासक नहीं समझ सकता है। अतः जिसका आत्मा इन्द्रियाँ और मन के साथ अन्तर्मुखी नहीं होता है, तब वह उससे क्या-क्या लाभ उठाता है, यह इससे दिखलाते हैं। उस अवस्था में इतस्ततः प्रकीर्ण जो ईश्वरप्रदत्त धन हैं, उनको मेधावी उपासक देखने और ग्रहण करने में समर्थ होता है। मन भी बहुत सी नवीन वस्तुओं का आविर्भाव करता है। नव-२ प्रलीन विज्ञान भासित होने लगते हैं। वह सब ईश्वर की कृपा से होता है, अतः इसके द्वारा कृतज्ञता प्रकाशित की जाती है ॥२२॥
टिप्पणी: १−रोहित=लाल। जो कार्य में लगा रहता है, यह रक्त कहलाता है, क्योंकि सृष्टि करना रजोगुण का एक धर्म है। जिस हेतु उपासक, ग्रन्थप्रणेता, संसारोपकारी इत्यादि जनों का मन सदा कार्य्यासक्त रहता है, अतः मन को रोहित नाम देकर यहाँ वर्णन किया गया है। २−सुधुर=जिस लोह वा काष्ठदण्ड के आधार पर गाड़ी का पहिया रहता है, उसे संस्कृत में धुर् कहते हैं। यहाँ शरीररूप धुर् है। ३−कक्ष्यप्रा=सवारी करने के समय जिस रज्जु से घोड़े के तंग आदि बाँधते हैं, वह कक्ष्या। उसको पूरा करनेवाले को “कक्ष्यप्रा” कहते हैं। यहाँ ज्ञान-विज्ञान से पुष्ट अर्थ ही लक्ष्य है। यह वर्णन विस्पष्टरूप से अध्यात्मवर्णन दिखला रहा है ॥२२॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (पाकस्थामा) परिपक्व बलवाले कर्मयोगी ने (सुधुरं) सुन्दर स्कन्धवाला (कक्ष्यप्रां) कक्षा में रहनेवाली रज्जु का पूरक=स्थूल (रायः, विबोधनं) धनों का उत्पादन-हेतु (रोहितं) रोहित वर्णवाला अश्व (मे) मुझ विद्वान् को (अदात्) दिया ॥२२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि कर्मयोगी लोग ही शीघ्र गतिशील अश्वादि पदार्थों को लाभ करके विद्वानों के अर्पण करते हैं, ताकि वे सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करें। “अश्व” शब्द यहाँ सब वाहनों का उपलक्षण है अर्थात् जल, स्थल तथा नभोगामी जो गतिशील वाहन, उन सबका अश्व शब्द ग्राहक है ॥२२॥
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शिव शंकर शर्मा
पुनस्तमर्थमाह।
पदार्थान्वयभाषाः - जीवेन किं धनं दत्तमस्तीति प्रदर्श्यते। यथा। अत्र मनोऽश्वरूपेण वर्ण्यते। पाकस्थामा=शारीरको जीवः। मे=मह्यम्। रोहितम्=लोहितवर्णं मनः। कार्य्यपरायणत्वेन रजो बाहुल्यात् मनसो लोहितत्वम्। अदात्=दत्तवानस्ति। मम संस्कृतो जीवात्मा मनो वशीकृत्य कार्यं साधयति। न मम मनः चञ्चलमस्ति। कीदृशम्। सुधुरम्=शोभनधुरम्। शोभना शरीररूपा धूर्यस्य। ऋक्पूरब्धू इत्यकारः समासान्तः। पुनः। कक्ष्यप्राम्=कक्ष्या बाहुमूलयोर्बध्यमाना रज्जुः। तस्याः। प्रातारम्=पूरयितारम्। ज्ञानविज्ञानैः सुपुष्टमित्यर्थः। प्रा पूरणे। पुनः कीदृशम्। रायः=ज्ञानविज्ञानरूपस्य धनस्य। विबोधनम्=विबोधयितृ ॥२२॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (पाकस्थामा) परिपक्वबलः सः (सुधुरं) सुस्कन्धं (कक्ष्यप्रां) कक्षारज्जुपूरकं (रायः, विबोधनं) धनानामुत्पादकं (रोहितं) रोहितवर्णाश्वं (मे) मह्यं विदुषे (अदात्) दत्तवान् ॥२२॥