वांछित मन्त्र चुनें

इ॒मे हि ते॑ का॒रवो॑ वाव॒शुर्धि॒या विप्रा॑सो मे॒धसा॑तये । स त्वं नो॑ मघवन्निन्द्र गिर्वणो वे॒नो न शृ॑णुधी॒ हव॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ime hi te kāravo vāvaśur dhiyā viprāso medhasātaye | sa tvaṁ no maghavann indra girvaṇo veno na śṛṇudhī havam ||

पद पाठ

इ॒मे । हि । ते॒ । का॒रवः॑ । वा॒व॒शुः । धि॒या । विप्रा॑सः । मे॒धऽसा॑तये । सः । त्वम् । नः॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । वे॒नः । न । शृ॒णु॒धि॒ । हव॑म् ॥ ८.३.१८

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:18 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:28» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:18


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

मेधाप्राप्ति के लिये प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (इमे) ये संसार में दृश्यमान (कारवः) कर्मरत और (विप्रासः) मेधावीगण (मेधसातये) शुभकर्मों की पूर्ति के लिये (धिया) अन्तःकरण से (ते) तेरी ही (वावशुः) स्तुति करते हैं (मघवन्) हे धनसम्पन्न ! (गिर्वणः) हे वाणियों से स्तवनीय ईश ! (सः+त्वम्) वह तू (वेनः+न) कामी पुरुष के समान अथवा ज्ञानी के समान (नः) हमारे (हवम्) आह्वान को (शृणुधि) सुन ॥१८॥
भावार्थभाषाः - शुभ कर्मों की पूर्ति के लिये ज्ञानी अज्ञानी सब ही जन अन्तःकरण से तेरी ही स्तुति करते हैं। वह तू प्रिय के समान हमारे वचनों को सुन और हमारे मनोरथों को पूर्ण कर ॥१८॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (इमे, हि, ते, कारवः) यह पुरःस्थ आपके शिल्पी लोग (विप्रासः) जो स्व-स्व कार्य्य में कुशल हैं, वे (मेधसातये) यज्ञभागी होने के लिये (धिया) अपनी स्तुति वाग्द्वारा (वावशुः) आपकी अत्यन्त कामना करते हैं (मघवन्) हे धनवन् ! (गिर्वणः, सः, त्वं) प्रशंसनीय वह आप (वेनः, न) जाताभिलाष पुरुष के सदृश (नः, हवं) हमारी प्रार्थना को (शृणुधि) सुनें ॥१८॥
भावार्थभाषाः - याज्ञिक पुरुषों की ओर से कथन है कि हे ऐश्वर्य्यशाली कर्मयोगिन् ! शिल्पी लोग, जो विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्रादि बनाने तथा अन्य कामों के निर्माण करने में कुशल हैं, वे यज्ञ में भाग लेने के लिये आपकी कामना करते हैं अर्थात् अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण द्वारा युद्धविशारद होना भी यज्ञ है, सो इन साहाय्याभिलाषी पुरुषों को यज्ञ में भाग दें, ताकि युद्धसामग्री के निर्माणपूर्वक यह यज्ञ सर्वाङ्गपूर्ण हो ॥१८॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

मेधायै प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! इमे=संसारस्थाः। हि=खलु। कारवः=यज्ञादिशुभकर्मणां कर्तारः। विप्रासः=मेधाविनो जनाश्च। धिया=स्तुत्या कर्मणाऽन्तःकरणेन वा। ते=त्वामुद्दिश्य। वावशुः=पुनः पुनरुशन्तीच्छन्ति स्तुवन्ति। वश कान्तौ। कस्मै प्रयोजनाय। मेधसातये=मेधानां यज्ञानां सातये संभजनाय। हे मघवन् ! हे गिर्वणः=गीर्भिर्वचनैः। वननीय=स्तुत्य। देव ! स त्वं। वेनो न=वेन इव। वेनतिः कान्तिकर्मा। यथा कान्तः तद्वदिव। नोऽस्माकम्। हवम्=आह्वानम्। शृणुधि=शृणु ॥१८॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (इमे, हि, ते, कारवः) इमे हि पुरःस्थास्तव कर्मणां कर्तारः (विप्रासः) स्वकर्मणि कुशलाः (मेधसातये) यज्ञसेवनार्थं (धिया) स्वस्तुतिवाचा (वावशुः) त्वां प्रकामयन्ते (मघवन्) हे धनवन् ! (गिर्वणः, सः, त्वं) प्रशंसनीयः स त्वं (वेनः, न) जाताभिलाष इव (नः, हवं) अस्मत्प्रार्थनां (शृणुधि) शृणुयाः ॥१८॥