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यथा॒ वश॑न्ति दे॒वास्तथेद॑स॒त्तदे॑षां॒ नकि॒रा मि॑नत् । अरा॑वा च॒न मर्त्य॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yathā vaśanti devās tathed asat tad eṣāṁ nakir ā minat | arāvā cana martyaḥ ||

पद पाठ

यथा॑ । वश॑न्ति । दे॒वाः । तथा॑ । इत् । अ॒स॒त् । तत् । ए॒षा॒म् । नकिः॑ । आ । मि॒न॒त् । अरा॑वा । च॒न । मर्त्यः॑ ॥ ८.२८.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:28» मन्त्र:4 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:35» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:4


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शिव शंकर शर्मा

कर्त्तव्य कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) सत्यसंकल्प, सत्यासक्त, परोपकारी, सर्वथा स्वार्थविरहित विद्वान् जन (यथा+वशन्ति) जैसा चाहते हैं, (तथा+इत्) वैसा ही (असत्) होता है, क्योंकि (एषाम्) इन विद्वद्देवों की (तत्) उस कामना को (नकिः) कोई नहीं (मिनत्) हिंसित=निवारित कर सकता। परन्तु इतर मनुष्य वैसा नहीं होता है, क्योंकि वह (अरावा) अदाता होता है वह मूर्ख न देता, न होमता, न तपता, न कोई शुभकर्म ही करता, अतएव वह (मर्त्यः) इतरजन मर्त्य है अर्थात् अविनाशी यश का वह उपार्जन नहीं करता, इससे वह मर्त्यः=मरणधर्मा है और असत्यसंकल्प है। इससे यह शिक्षा मिलती है कि मनुष्य शुभकर्मों को करके देव बने ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो अपने पीछे यश, कीर्ति और कोई चिरस्थायी वस्तु को छोड़नेवाला नहीं है, वही मर्त्य है, क्योंकि उसका कोई स्मारक नहीं रहता। जिनके स्मारक कुछ रह जाते हैं, वे ही देव हैं, अतः देव बनने के लिये सब प्रयत्न करें ॥४॥
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शिव शंकर शर्मा

कर्त्तव्यमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - देवाः=सत्यसंकल्पाः=सत्यासक्ताः परोपकारिणः स्वार्थविरहिता विद्वांसो मनुष्याः। यथा+वशन्ति=यथा इच्छन्ति। तथा+इत्=तथैव। असत्=अस्ति=भवति। यद् देवा इच्छन्ति तद् भवत्येवेत्यर्थः। “वश कान्तौ”। तदेवाह−एषाम्=देवानाम्। तत्कामनम्। न किः=न कश्चिदपि। मिनत्=हिनस्ति= निवारयति। “मीङ् हिंसायाम्” लेटि रूपम्। न तथा इतरो मनुष्यो भवतीत्याह। चन=निश्चये। यताः। मर्त्यः=मरणधर्मा। चन=निश्चयेन। अरावा=अदाता भवति। स खलु मूर्खो न ददाति, न जुहोति, न तपस्यति, न च किमपि शुभमाचरति। अतः सः। असत्यसंकल्पत्वाद् देववन्न भवति ॥४॥