अब ब्राह्मण और क्षत्रिय के धर्मों को दिखलाते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - हे मित्रनामक ब्राह्मणप्रतिनिधि ! हे वरुणनामक क्षत्रियप्रतिनिधि ! आप दोनों (विश्वस्य+गोपा) सकल कार्य के रक्षक नियुक्त हैं, (देवेषु+देवा) विद्वानों में भी विद्वान् हैं और (यज्ञिया) विद्वानों में यज्ञवत् पूज्य हैं (ऋतावाना) ईश्वर के सत्य नियम पर चलनेवाले अतएव (पूत+दक्षसा) पवित्र बलधारी हैं। (ता) उन और वैसे (वाम्) आप दोनों को हम प्रजागण (यजसे) सकल कार्यों में सत्कार करते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो जगत् के जितने अधिक लाभकारी हों, वे उतने ही पूजायोग्य हैं। जो ईश्वरीय नियमों को सदा देश में फैलाते हैं और प्रकृति का अध्ययन करते रहते हैं, सत्यपथ से कदापि पृथक् नहीं होते, इत्यादि विविधगुणयुक्त पुरुष का नाम ब्राह्मण है। प्रजापालन में तत्पर और सत्यादि सर्वगुणसम्पन्न पुरुष का नाम क्षत्रिय है। वैसे महापुरुष निःसन्देह पूज्य, मान्य और अभिनन्दनीय हैं। यही विषय इस सूक्त में दिखलावेंगे ॥१॥