पदार्थान्वयभाषाः - (वीरः, मर्त्यः) वीरमनुष्य=राजा को उचित है कि वह जो (अमृतम्) मृत्यु से नहीं डरता (पावकम्) तथा सब जनों को पाप से निवर्तन करने में समर्थ (कृष्णवर्तनिम्) जिसका व्यापार सबके मन को आकर्षित करता है (विहायसम्) जो तेज में सबसे अधिक है, ऐसे मनुष्य को (दूतम्) आपत्तिनिवारक शूरपति (कृण्वीत) बनावे ॥१९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में यह वर्णन किया है जो विद्वान् योद्धा पाँच क्लेशों में से अभिनिवेश=मृत्यु के त्रास से सर्वथा रहित है अर्थात् जिसको मृत्यु का भय नहीं है, उसी का अपूर्ण कर्म=साहस प्रजाजनों को अपनी ओर खेंचता है, अन्यों का नहीं ॥१९॥ तात्पर्य्य यह है कि “नाकृत्वा दारुणं कर्म श्रीरुत्पद्यते क्वचित्” इस वाक्यानुसार जो एक बार भी भूकम्प के समान भयानक पापों को कम्पायमान नहीं कर देता, वह श्री=शोभा, लक्ष्मी तथा ऐश्वर्य्य को कदापि प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिये न्यायकारी ईश्वरोपासक पुरुषों को उचित है कि उक्त प्रकार के साहसी योद्धाओं को अपना संरक्षक बनावें, ताकि उनके यज्ञों में विघ्न न हों ॥१९॥