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सीद॑न्तस्ते॒ वयो॑ यथा॒ गोश्री॑ते॒ मधौ॑ मदि॒रे वि॒वक्ष॑णे । अ॒भि त्वामि॑न्द्र नोनुमः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sīdantas te vayo yathā gośrīte madhau madire vivakṣaṇe | abhi tvām indra nonumaḥ ||

पद पाठ

सीद॑न्तः । ते॒ । वयः॑ । य॒था॒ । गोऽश्री॑ते । मधौ॑ । म॒दि॒रे । वि॒वक्ष॑णे । अ॒भि । त्वाम् । इ॒न्द्र॒ । नो॒नु॒मः॒ ॥ ८.२१.५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:21» मन्त्र:5 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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शिव शंकर शर्मा

वह नमस्कार योग्य है, यह इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे सर्वदृष्टा ईश ! (त्वाम्) तुझको हम सब (अभिनोनुमः) सब तरह से बारम्बार स्तुति करते हैं। (वथा+वयः) जैसे पक्षीगण अपने घोसले में आराम से रहते हैं, इसी तरह हम सब (ते) तेरे (गोश्रीते) दूध, दही पदार्थों से मिश्रित (मधौ) मधुर (मदिरे) आनन्दजनक (विवक्षणे) इस संसार में आनन्द से (सीदन्तः) बैठे हुए हैं, इसलिये तेरी स्तुति करते हैं ॥५॥
भावार्थभाषाः - जीव मनुष्यशरीर पाकर नाना भोग भोगते हुए बड़े आनन्द से भगवद्रचित संसार में विश्राम कर रहा है, इसलिये भगवान् की स्तुति-प्रार्थना करना उचित ही है ॥५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा, वयः) जैसे वृक्ष की शाखाएँ वृक्ष ही का अवलम्बन करके हरी-भरी रह सकती हैं, इसी प्रकार हम सब भी (ते) आपकी रक्षा द्वारा लब्ध (गोश्रीते) गव्य पदार्थों के साथ परिपक्व (मधौ) मधुर (मदिरे) आह्लादक (विवक्षणे) कार्यवहन में समर्थ अन्नादि रसों का (सीदन्तः) आश्रयण करते हुए प्रफुल्लित रहते हैं (इन्द्र) हे ऐश्वर्यशालिन् ! (त्वाम्) आपकी (अभिनोनुमः) बार बार स्तुति करते हैं ॥५॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार शाखा आदि अवयवों के रहते ही वृक्ष की सत्ता है, विना अवयवों के नहीं, जिस प्रकार वृक्षमूल के रहते ही शाखाओं की सत्ता है, बिना मूल के नहीं, इसी प्रकार प्रजा और सेनाध्यक्ष इन दोनों का भी अस्तित्व परस्पराश्रय है, स्वाश्रय नहीं, इसलिये दोनों में परस्पर प्रेम होना आवश्यक है ॥५॥
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शिव शंकर शर्मा

स एव नमनीय इति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! त्वाम्। अभिनोनुमः=आभिमुख्येन नोनुमः=पुनः पुनर्भृशं वा स्तुमः। कीदृशा वयम्। ते+विवक्षणे=तवाश्रिते=त्वयोह्यमाने संसारे सीदन्तः। कीदृशे विवक्षणे। मदिरे=आनन्दजनके। पुनः। मधौ=मधुवत्प्रिये। पुनः। गोश्रीते=गोविकारे। दधिपयसी गोशब्देनोच्येते। दध्ना पयसा च। श्रीते=मिश्रिते। सदने दृष्टान्तः। वयो यथा=विहगा यथा एकत्र सङ्घीभूय तिष्ठन्ति ॥५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा, वयः) यथा वृक्षशाखाः वृक्षमवलम्ब्यैव जीवन्ति तद्वत् (गोश्रीते) पयसा पक्के (मधौ) मधुरे (मदिरे) आह्लादके (विवक्षणे) कार्यनिर्वहणसमर्थे (ते) त्वद्दत्ते एव रसे (सीदन्तः) आश्रिताः वयम् (इन्द्र) हे ऐश्वर्यशालिन् ! (त्वाम्, अभिनोनुमः) त्वाम् अभितोष्टूयामहे ॥५॥