पदार्थान्वयभाषाः - (इयत्, मघम्) इष्टपूर्तियोग्य धन को (इन्द्रः, वा, घेत्) इन्द्र=योद्धाओं में परमैश्वर्यसम्पन्न सेनापति ही (ददिः) देता है (वा) अथवा (सुभगा, सरस्वती) कल्याणस्वरूपवाली विद्या ही (वसु) पर्याप्त धन देती है (वा) अथवा (चित्र) हे चयनीय=राजाओं के स्वामी सम्राट् ! (दाशुषे) दानशील प्रजा के लिये (त्वम्) आप ही देते हो ॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में यह कथन किया है कि प्रजाओं के बड़े से बड़े उद्देश्यों के साधक तीन ही हो सकते हैं (१) सर्वोपकारक विद्या (२) योद्धाओं का स्वामी=सेनापति (३) सब छोटे-२ राजाओं का स्वामी सम्राट्, इसलिये जो प्रजाओं का हित चाहनेवाला सम्राट् है, उसको चाहिये कि वह अपने राष्ट्र में ऐसी विद्या उत्पन्न करे, जिससे प्रजाजन स्वतन्त्रता से अपने-२ कार्यों को स्वयं पूर्ण कर सकें अथवा ऐसा प्रजाहितैषी सेनापति नियत करे वा स्वयं ही उनके उद्देश्यों को सर्वदा पूर्ण करता रहे, जिससे वे लोग प्रसन्नता के साथ अपने सहायक हो सकें ॥१७॥