वांछित मन्त्र चुनें

इन्द्रो॑ वा॒ घेदिय॑न्म॒घं सर॑स्वती वा सु॒भगा॑ द॒दिर्वसु॑ । त्वं वा॑ चित्र दा॒शुषे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indro vā ghed iyan maghaṁ sarasvatī vā subhagā dadir vasu | tvaṁ vā citra dāśuṣe ||

पद पाठ

इन्द्रः॑ । वा॒ । घ॒ । इत् । इय॑त् । म॒घम् । सर॑स्वती । वा॒ । सु॒ऽभगा॑ । द॒दिः । वसु॑ । त्वम् । वा॒ । चि॒त्र॒ । दा॒शुषे॑ ॥ ८.२१.१७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:21» मन्त्र:17 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:17


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

परमात्मा बहुत धन देता है, यह दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वा) अथवा क्या (इद्रः+घ+इत्) इन्द्र ही (इयत्+मघम्) इतना धन (दाशुषे) भक्तजन को (ददिः) देता है (वा) अथवा (सुभगा+सरस्वती) अच्छी नदियाँ (वसु) इतना धन देती हैं, इस सन्देह में आगे कहते हैं (चित्र) हे आश्चर्य ईश्वर ! (दाशुषे) भक्तजन को (त्वा) तू ही धन देता है, (वा) यह निश्चय है ॥१७॥
भावार्थभाषाः - जहाँ नदियों और मेघों के कारण धन उत्पन्न होता है, वहाँ के लोग धनदाता ईश्वर को न समझ नदी आदि को ही धनदाता समझ पूजते हैं, इसका वेद निषेध करता है ॥१७॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इयत्, मघम्) इष्टपूर्तियोग्य धन को (इन्द्रः, वा, घेत्) इन्द्र=योद्धाओं में परमैश्वर्यसम्पन्न सेनापति ही (ददिः) देता है (वा) अथवा (सुभगा, सरस्वती) कल्याणस्वरूपवाली विद्या ही (वसु) पर्याप्त धन देती है (वा) अथवा (चित्र) हे चयनीय=राजाओं के स्वामी सम्राट् ! (दाशुषे) दानशील प्रजा के लिये (त्वम्) आप ही देते हो ॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में यह कथन किया है कि प्रजाओं के बड़े से बड़े उद्देश्यों के साधक तीन ही हो सकते हैं (१) सर्वोपकारक विद्या (२) योद्धाओं का स्वामी=सेनापति (३) सब छोटे-२ राजाओं का स्वामी सम्राट्, इसलिये जो प्रजाओं का हित चाहनेवाला सम्राट् है, उसको चाहिये कि वह अपने राष्ट्र में ऐसी विद्या उत्पन्न करे, जिससे प्रजाजन स्वतन्त्रता से अपने-२ कार्यों को स्वयं पूर्ण कर सकें अथवा ऐसा प्रजाहितैषी सेनापति नियत करे वा स्वयं ही उनके उद्देश्यों को सर्वदा पूर्ण करता रहे, जिससे वे लोग प्रसन्नता के साथ अपने सहायक हो सकें ॥१७॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

परमात्मा बहुधनं ददातीति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - वा=अथवा किम्। इन्द्रो+घेत्=इन्द्र खलु। इयत्+मघम्=इयद्धनम्। दाशुषे=भक्तजनाय। ददिः=ददाति। वा=अथवा। सुभगाः+सरस्वती। इयद्वसुददिः। इति सन्देहे वक्ष्यमाणग्रन्थेन निश्चीयते। वा=अथवा। हे चित्र=हे आश्चर्य ! त्वमेव ददासि ॥१७॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इयत्, मघम्) इयदिष्टपूर्त्यलम् धनम् (इन्द्र, वा, घेत्) इन्द्रः योद्धृपतिरेव (ददिः) ददाति (वा) अथवा (सुभगा, सरस्वती) कल्याणरूपा विद्यैव (वसु) धनं ददाति (वा) अथवा (चित्र) चायनीय राजपते सम्राट् ! (दाशुषे) दानशीलप्रजायै (त्वम्) त्वं दातुं शक्नुयाः ॥१७॥