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मा ते॑ गोदत्र॒ निर॑राम॒ राध॑स॒ इन्द्र॒ मा ते॑ गृहामहि । दृ॒ळ्हा चि॑द॒र्यः प्र मृ॑शा॒भ्या भ॑र॒ न ते॑ दा॒मान॑ आ॒दभे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā te godatra nir arāma rādhasa indra mā te gṛhāmahi | dṛḻhā cid aryaḥ pra mṛśābhy ā bhara na te dāmāna ādabhe ||

पद पाठ

मा । ते॒ । गो॒ऽद॒त्र॒ । निः । अ॒रा॒म॒ । राध॑सः । इन्द्र॑ । मा । ते॒ । गृ॒हा॒म॒हि॒ । दृ॒ळ्हा । चि॒त् । अ॒र्यः । प्र । मृ॒श॒ । अ॒भि । आ । भ॒र॒ । न । ते॒ । दा॒मानः॑ । आ॒ऽदभे॑ ॥ ८.२१.१६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:21» मन्त्र:16 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:16


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (गोदत्र) हे गवादि पशुओं के दाता ! (ते) तेरे उपासक हम लोग (राधसः) सम्पत्तियों से (मा+निरराम) पृथक् न होवें। और (ते) तेरे उपासक हम (मा+गृहामहि) दूसरे का धन न ग्रहण करें। (अर्यः) तू धनस्वामी है (दृढाचित्) दृढ़ धनों को भी (प्र+मृश) दे (अभि+आभर) सब तरह से हमको पुष्ट कर (ते+दामानः) तेरे दान न (आदभे) अनिवार्य हैं ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हम अपने पुरुषार्थ से धनसंग्रह करें। दूसरों के धनों की आशा न करें। ईश्वर से ही अभ्युदय के लिये माँगें ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (गोदत्र) हे तेजःप्रद अथवा विद्याप्रद वा गवादिवर्धक (इन्द्र) सेनापते ! (ते) आपके हम सब प्रजाजन (राधसः) धन से (मा, निरराम) पृथक् मत हों (ते) और हम सब आप ही के रक्ष्य हैं इससे (मा, गृहामहि) अन्य किसी से ऋणादिरूप से किसी पदार्थ को मत लें (अर्यः) आप स्वामी हैं अतः (दृढा, चित्, प्रमृश) सब दृढ़ पदार्थों को दें (अभ्याभर) सम्यक् पालन-पोषण करें (ते, दामानः) आपके दिये दान (न, आदभे) किसी से बाधित नहीं किये जा सकते ॥१६॥
भावार्थभाषाः - सेनापति को चाहिये कि राष्ट्र के किसी एक विभाग में धन या किसी अन्य वस्तु की न्यूनता हो तो वह दूसरे विभाग से पूर्ण करे और जहाँ तक हो सके पौरुष, ज्ञान, विज्ञान तथा गो आदि पदार्थों की वृद्धि करता रहे, जिससे नित्यावश्यक पदार्थों से उसका राष्ट्र क्लेशित न हो ॥१६॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे गोदत्र=गवादिपशूनां दातः ! ते=तव उपासकाः वयम्। राधसः=धनात्। मा+निरराम=मा निर्गमाम। ते=तवोपासकाः। वयम्। मा+गृहामहि=अन्यस्मात् न गृह्णीमः। अर्य्यः=स्वामी त्वम्। दृढाचित्=दृढान्यपि धनानि। प्र+मृश=अस्मासु स्थापय। अभ्याभर=अभितः समन्तात् पोषय। ते=तव। दामानः=दानानि। न। आदभे=आदभ्यन्ते आदम्भितुं शक्यन्ते ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (गोदत्र) हे तेजोद, विद्याप्रद गवादिदानशील वा (इन्द्र) सेनापते ! (ते) तव वयम् (राधसः) धनात् (मा, निरराम) मा निर्गच्छेम (ते) वयं तवातः (मा, गृहामहि) अन्यस्मान्मा गृह्णाम (अर्यः) स्वामी त्वम् (दृढा, चित्, प्रमृश) दृढानि एव देहि (अभ्याभर) अभितः आहर (ते, दामानः) तव दानानि (न, आदभे) आदब्धुं न शक्यन्ते ॥१६॥