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नकी॑ रे॒वन्तं॑ स॒ख्याय॑ विन्दसे॒ पीय॑न्ति ते सुरा॒श्व॑: । य॒दा कृ॒णोषि॑ नद॒नुं समू॑ह॒स्यादित्पि॒तेव॑ हूयसे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nakī revantaṁ sakhyāya vindase pīyanti te surāśvaḥ | yadā kṛṇoṣi nadanuṁ sam ūhasy ād it piteva hūyase ||

पद पाठ

नकिः॑ । रे॒वन्त॑म् । स॒ख्याय॑ । वि॒न्द॒से॒ । पीय॑न्ति । ते॒ । सु॒रा॒श्वः॑ । य॒दा । कृ॒णोषि॑ । न॒द॒नुम् । सम् । ऊ॒ह॒सि॒ । आत् । इत् । पि॒ताऽइ॑व । हू॒य॒से॒ ॥ ८.२१.१४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:21» मन्त्र:14 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:14


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शिव शंकर शर्मा

दुर्जन का स्वभाव दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! तू जो जन (रेवन्तम्) केवल धनिक है परन्तु दान और यज्ञादि से रहित है, उसको (सख्याय+नकिर्विन्दसे) मैत्री के लिये प्राप्त नहीं करता। अर्थात् वैसे पुरुष को तू मित्र नहीं बनाता, क्योंकि (सुराश्वः) सुरा आदि अनर्थक द्रव्यों से सुपुष्ट नास्तिकगण (त्वाम्+पीयन्ति) तेरी हिंसा करते हैं अर्थात् तेरे नियमों को नहीं मानते। परन्तु (यदा) जब तू (नदनुम्) मेघ द्वारा गर्जन (कृणोषि) करता है और (समूहसि) महामारी आदि भयंकर रोग द्वारा मनुष्यों का संहार करता है, (आत+इत्) तब (पिता+इव+हूयसे) पिता के समान आहूत और पूजित होता है ॥१४॥
भावार्थभाषाः - पापी दुर्जन ईश्वर के नियमों को तोड़ते रहते हैं, परन्तु विपत्काल में उसको पुकारते हैं ॥१४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - जो (सुराश्वः) मद्यपान से स्थूल होकर (ते, पीयन्ति) आपकी आज्ञाभङ्गरूप हिंसा को करते हैं, उनमें जो (रेवन्तम्) धनी हैं उनको भी (सख्याय) मित्रता के अर्थ (नकिः, विन्दसे) आप नहीं प्राप्त होते हैं (यत्) जो आप (समूहसि) समूह में (नदनुम्) संग्राम “नदनु” शब्द युद्ध नामों में पढ़ा है, नि० २।१६। (आकृणोषि) सम्यक् करते हैं (आत्, इत्) अतएव (पितेव, हूयसे) पिता के समान बुलाये जाते हैं ॥१४॥
भावार्थभाषाः - सेनापति को चाहिये कि वह स्वयं दुराचार से दूर रहते हुए दुराचारियों का सङ्ग भी न करे, क्योंकि ऐसा करने से संग्राम में विजय प्राप्त होना दुष्कर है और जो सेनापति विजय प्राप्त नहीं कर सकता, उसका प्रजाजन भी निरादर करते और वह सफलमनोरथ नहीं होता, इसलिये सेनापति को सदाचारसम्पन्न होकर विजय प्राप्त करने का सदैव उद्योग करना चाहिये ॥१४॥
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शिव शंकर शर्मा

दुर्जनस्वभावं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! रेवन्तम्=केवलधनवन्तं दानादिरहितमयष्टारं धनिनम्। सख्याय। नकिर्विन्दसे=न भजसे। सुराश्वः=सुरया वृद्धाः=प्रमत्ता नास्तिकाः। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः। त्वाम्। पीयन्ति=हिंसन्ति। यदा त्वम्। न दनुम्=मेघद्वारा गर्जनम्। कृणोषि=करोषि। यदा च। समूहसि=संगृह्णासि। आदित्=अनन्तरमेव। त्वं पितेव हूयसे ॥१४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - ये (सुराश्वः) सुरया वृद्धाः (ते, पीयन्ति) त्वामाज्ञातिक्रमेण हिंसन्ति तेषु (रेवन्तम्) धनिनमपि (सख्याय) मैत्र्यै (नकिः, विन्दसे) न प्राप्नोषि (यत्) यतः (समूहसि) समूहे (नदनुम्) संग्रामम् (आकृणोषि) आकरोषि (आत्, इत्) अतएव (पितेव, हूयसे) पितेवाकार्यसे ॥१४॥