पदार्थान्वयभाषाः - (वः, अज्मन्) आपके प्रस्थान करने पर (अच्युता, चित्) नहीं हिलने योग्य भी (पर्वताः) पर्वत (आ) चारों ओर से (नानदति) अत्यन्त शब्द करने लगते हैं तथा (वनस्पतिः) वनस्पतिएँ भी शब्दायमान हो जाती हैं (यामेषु) और यात्रा करने पर (भूमिः) पृथिवी (रेजते) काँपने लगती है ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में योद्धाओं के प्रस्थान करने पर जो पर्वतादिकों का शब्दायमान होना कथन किया है वह उपचार से है, या यों कहो कि क्षात्रधर्म का अनुष्ठान करनेवाले योद्धाओं का बल वर्णन किया है कि उनके प्रचण्ड वेग से भूमिस्थ लोक काँपने लगते हैं, जैसे कोई कहे कि भारत का आर्तनाद सुनकर सब लोग करुणारस में प्रवाहित होजाते हैं, इस कथन में “भारत” शब्द भारतवर्ष को नहीं किन्तु भारतदेशनिवासियों में लाक्षणिक होने से मनुष्यों का वाचक है, इसको शास्त्रीय परिभाषा में अलंकार, उपचार वा लक्षणा कहते हैं, लक्ष्यार्थ को समझकर जो वेदार्थ का ज्ञाता होता है, वही इस आशय को समझता है, अन्य नहीं ॥५॥