यथा॑ रु॒द्रस्य॑ सू॒नवो॑ दि॒वो वश॒न्त्यसु॑रस्य वे॒धस॑: । युवा॑न॒स्तथेद॑सत् ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
yathā rudrasya sūnavo divo vaśanty asurasya vedhasaḥ | yuvānas tathed asat ||
पद पाठ
यथा॑ । रु॒द्रस्य॑ । सू॒नवः॑ । दि॒वः । वश॑न्ति । असु॑रस्य । वे॒धसः॑ । युवा॑नः । तथा॑ । इत् । अ॒स॒त् ॥ ८.२०.१७
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:20» मन्त्र:17
| अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:39» मन्त्र:2
| मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:17
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शिव शंकर शर्मा
पुनः उसी विषय की अनुवृत्ति है।
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यों ! वे सैनिकजन (रुद्रस्य सूनवः) परमेश्वर के पुत्र हों अर्थात् ईश्वर के भक्त हों (दिवः) अच्छे स्वभाववाले (असुरस्य) भक्तजनों के (वेधसः) रक्षक हों तथा (युवानः) युवा पुरुष हों (यथा) जिस प्रकार यह कार्य सिद्ध हो (तथा+इत्) वैसा ही (असत्) होना चाहिये ॥१७॥
भावार्थभाषाः - यहाँ रुद्रादि शब्द से सैनिकजनों का लक्षण कहा गया है। प्रथम रुद्रसूनु पद से दिखलाया गया है कि ईश्वर के पुत्र जैसे परोपकारी आदि हो सकते हैं, वैसे ही सैनिकजन हैं और प्रत्येक उत्तम कार्य्य के वे विधायक हैं और युवा हैं। युवक पुरुषों से सेना में जितने कार्य्य सिद्ध हो सकते हैं, उतने वृद्धादिकों से नहीं ॥१७॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (रुद्रस्य, सूनवः) शत्रुओं को रुलानेवाले वीरों की सन्तान (असुरस्य) दुष्टजनों के (वेधसः) सुधारक (युवानः) युवा वीर (यथा) जिस प्रकार (दिवः) अन्तरिक्ष=पर्वताद्युच्च प्रदेशों में विद्यमान होते हुए भी (वशन्ति) हमको चाहते रहें (तथा, इत्) वही उपाय (असत्) हो ॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि रुद्र=शत्रुओं को रुलानेवाले योद्धाओं की सन्तान भी दुष्टजनों की सुधारक तथा उनको धर्मपथ पर स्थित करनेवाली होती है अर्थात् उक्त वीर पुरुषों की सन्तानें प्रजाजनों में सुधार उत्पन्न करती हुई सम्पूर्ण सुखों की उत्पादक होती हैं ॥१७॥
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शिव शंकर शर्मा
पुनस्तदनुवर्त्तते।
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा=येन प्रकारेण। रुद्रस्य=ईश्वरस्य। सूनवः=पुत्राः। दिवः=दिव्याः। असुरस्य=भक्तजनस्य। वेधसः=विधातारो रक्षका भवेयुः। तथेत्=तथैव। असत्=यतितव्यम्। ते पुनः कथंभूताः। युवानः। वसन्ति=कामयन्ते। अस्मान्=कामयेरन् तथा यतितव्यम्। सैनिकैर्जनैः सदा युवभिः ईश्वरभक्तैश्च भाव्यम्। ते यथा प्रसन्ना भवेयुस्तथा अन्यैरपि यतितव्यम् ॥१७॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (रुद्रस्य, सूनवः) रुद्रस्य=रुद्राणां भयंकरवीराणाम् “जात्यभिप्रायेणैकवचनम्” पुत्राः (असुरस्य) दुष्टजनस्य (वेधसः) संस्कर्तारः (युवानः) तरुणाः (यथा) येनोपायेन (दिवः) अन्तरिक्षात् पर्वताद्युच्चप्रदेशादपि (वशन्ति) अस्मानिच्छन्ति (तथा, इत्, असत्) तथैव भवतु ॥१७॥