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सु॒भग॒: स व॑ ऊ॒तिष्वास॒ पूर्वा॑सु मरुतो॒ व्यु॑ष्टिषु । यो वा॑ नू॒नमु॒तास॑ति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

subhagaḥ sa va ūtiṣv āsa pūrvāsu maruto vyuṣṭiṣu | yo vā nūnam utāsati ||

पद पाठ

सु॒ऽभगः॑ । सः । वः॒ । ऊ॒तिषु॑ । आस॑ । पूर्वा॑सु । म॒रु॒तः॒ । विऽउ॑ष्टिषु । यः । वा॒ । नू॒नम् । उ॒त । अस॑ति ॥ ८.२०.१५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:20» मन्त्र:15 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:38» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:15


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (मरुतः) हे सेनागण ! (वः) आप लोगों की (ऊतिषु) रक्षाओं में जो जन (आस) रहता है, (सः) वह जन (सुभगः) सदा धनसम्पन्न होता है। कब ? (पूर्वासु+व्युष्टिषु) अतीत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों में वह सुखी रहता है। (उत) और (वा+नूनम्) अवश्यमेव (यः) जो जन (असति) आपका होके रहता है, वह सदा सुखी होता है, इसमें सन्देह नहीं ॥१५॥
भावार्थभाषाः - सेना से सुरक्षित देश में सभी जन सुख से रहते हैं। सेना को उचित है कि लोभ, काम, क्रोध और अपमानादि से प्रेरित होकर प्रजाओं में कोई उपद्रव न मचावे, किन्तु प्रेम से प्रजा की रक्षा करे ॥१५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मरुतः) हे योद्धाओ ! (सः) वह मनुष्य (वः, ऊतिषु) आपकी रक्षा से युक्त होकर (सुभगः, आस) सुन्दरभाग्यवाला होता है जो आपके (पूर्वासु, व्युष्टिषु) प्रथम प्रवास में अपने गृह में आने पर सत्कार करता है (यः, वा) अथवा जो (नूनम्, उत) निश्चय ही (असति) आपका शरणागत होकर रहता है ॥१५॥
भावार्थभाषाः - जो प्रजाजन उपर्युक्त गुणसम्पन्न योद्धाओं को अपने घर बुलाकर उनका विविध पदार्थों से सत्कार करते और जो निश्चय ही उनके शरणागत होकर रहते हैं, वे सौभाग्यशाली होते हैं, या यों कहो कि जो प्रजावर्ग उक्त प्रकार के योद्धाओं को अपना रक्षक बनाते हैं, वे सदा सुखी रहते और निर्भय होकर ईश्वरीयधर्म का देश में प्रचार करते हैं ॥१५॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मरुतः=हे सेनागणाः। वः=युष्माकम्। ऊतिषु=रक्षासु मध्ये। यो जनः। आस=वर्तते। सः। सुभगः=शोभनधनो भवति। कदा। पूर्वासु+व्युष्टिषु=विवासितेषु अतीतेषु यद्वा पूर्वासु आगामिनीषु दिवसेषु। उत=अपि च। वा+नूनम्=निश्चयेन युष्माकं योजना। असति=भवति। स जनः सुखेषु तिष्ठति। सेनाभिः सुरक्षिते देशे सर्व एव जनः सुखेन तिष्ठति। अतएव लोभेन वा कामेन वा क्रोधेन वा अपमानादिना वा प्रेरिता सत्यः सेनाः कदापि प्रजोपद्रवं न कुर्युः। किन्तु प्रेम्णा प्रजाः पालयेयुः ॥१५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मरुतः) हे मरुतः ! (सः) स जनः (वः, ऊतिषु) युष्माकं रक्षासु सतीषु (सुभगः, आस) सुभगो भवति यो वः (पूर्वासु, व्युष्टिषु) प्रथमविवासदिनेषु परिचरति (यः, वा) अथवा यः (नूनम्, उत, असति) निश्चयं युष्मच्छरणो भवति ॥१५॥