वांछित मन्त्र चुनें

येषा॒मर्णो॒ न स॒प्रथो॒ नाम॑ त्वे॒षं शश्व॑ता॒मेक॒मिद्भु॒जे । वयो॒ न पित्र्यं॒ सह॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yeṣām arṇo na sapratho nāma tveṣaṁ śaśvatām ekam id bhuje | vayo na pitryaṁ sahaḥ ||

पद पाठ

येषा॑म् । अर्णः॑ । न । स॒ऽप्रथः॑ । नाम॑ । त्वे॒षम् । शश्व॑ताम् । एक॑म् । इत् । भु॒जे । वयः॑ । न । पित्र्य॑म् । सहः॑ ॥ ८.२०.१३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:20» मन्त्र:13 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:38» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:13


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - पुनः सैनिकजन कैसे हों, इस से कहते हैं−(येषाम्) जिनका (नाम) नाम (अर्णः+न) जल के समान (सप्रथः) सर्वत्र विस्तीर्ण हो और (त्वेषम्) दीप्तियुक्त हो, पुनः (शश्वताम्) चिरस्थायी, उन मरुद्गणों के (भुजे) बाहु में (एकम्+इत्) बल ही प्रधान हो और (न) जैसे (सहः) प्रसहनशील (पित्र्यम्) पैत्रिक (वयः) अन्न को लोग स्वच्छन्दता से भोगते हैं, तद्वत् सैनिकजन भी प्रजाओं के कार्य्य में आ सकें ॥१३॥
भावार्थभाषाः - सैनिक पुरुष ऐसे शुद्धाचारी हों कि जिनके नाम उज्ज्वल हों और वे ऐसे प्रजाहितकर हों कि सब कोई उनसे अपने धन के समान लाभ उठा सकें ॥१३॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (येषाम्) जिन योद्धाओं का (अर्णः, न, सप्रथः) जल के समान सर्वत्र फैला हुआ (त्वेषम्) दीप्त=प्रतापसहित (नाम) “भट” आदि शब्द (एकम्, इत्) अकेला ही (शश्वताम्) सकल प्रजा के (भुजे) भोग के अर्थ पर्याप्त है (न) जैसे (पित्र्यम्) पिता से लब्ध (वयः) अन्नादि (सहः) सुख से उपभोग के लिये पर्याप्त होता है ॥१३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि जिन योद्धाओं के नाम की धाक शत्रु के हृदय को कम्पायमान कर देती और जिनके प्रताप से धर्म तथा देश अभ्युदय को प्राप्त होता है, वे योद्धा सद्वंशविभूषित हिमाचल के समान अचल रहकर धर्म तथा जाति में शिरोमणि होकर विराजमान होते हैं ॥१३॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - येषाम्=मरुतां नाम। अर्णः+न=जलमिव। सप्रथः=सर्वतः=प्रथु विस्तीर्णं भवेत्। पुनः। त्वेषम्=दीप्तं भवेत्। पुनः। शश्वताम्=चिरस्थायिनां मरुताम्। भुजे। एकमिद्=एकमेव बलं स्यात्। पुनः। न=यथा। सहः=प्रसहनशीलं पित्र्यम्। वयोऽन्नं भवति। तद्वत् तेषां नाम भवेदित्यर्थः ॥१३॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (येषाम्) येषां मरुताम् (अर्णः, न, सप्रथः) उदकमिव विस्तृतम् (त्वेषम्) सप्रतापम् (नाम) भटशब्दः (एकम्, इत्) एकमेव (शश्वताम्) सर्वासां प्रजानाम् (भुजे) भोगाय भवति (न) यथा (सहः) सोढुं योग्यम् (पित्र्यम्) पितुरागतम् (वयः) अन्नादि ॥१३॥