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आ ग॑न्ता॒ मा रि॑षण्यत॒ प्रस्था॑वानो॒ माप॑ स्थाता समन्यवः । स्थि॒रा चि॑न्नमयिष्णवः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā gantā mā riṣaṇyata prasthāvāno māpa sthātā samanyavaḥ | sthirā cin namayiṣṇavaḥ ||

पद पाठ

आ । ग॒न्ता॒ । मा । रि॒ष॒ण्य॒त॒ । प्रऽस्था॑वानः । मा । अप॑ । स्था॒त॒ । स॒ऽम॒न्य॒वः॒ । स्थि॒रा । चि॒त् । न॒म॒यि॒ष्ण॒वः॒ ॥ ८.२०.१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:20» मन्त्र:1 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:36» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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शिव शंकर शर्मा

सेनाओं का वर्णन आरम्भ करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - इस सूक्त में सैन्य का वर्णन करते हैं, यथा−(प्रस्थावानः) हे सत्पुरुषों की रक्षा के लिये सर्वत्र प्रस्थानकारी मरुन्नाम के सैन्यजनों ! (आ+गन्त) आप आवें, सर्वत्र प्राप्त होवें। (मा+रिषण्यत) निरपराधी किसी को भी आप न मारें और (समन्यवः) क्रोधयुक्त होकर (मा+अपस्थात) आप कहीं न रहें क्योंकि आप (स्थिरा+चित्) दृढ़ भी पर्वतादिकों को (नमयिष्णवः) कँपानेवाले हैं, अतः यदि आप सक्रोध रहेंगे, तो प्रजाओं में अति हानि होगी ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस सूक्त का देवता मरुत् है। यह शब्द अनेकार्थ है। यहाँ सैन्यवाची है। मरुत् शब्द का एक धात्वर्थ मारनेवाला भी है। जिस कारण राज्यप्रबन्ध के लिये दुष्टसंहारजन्य मरुद्गण महासाधन और महास्त्र हैं, अतः इसका नाम मरुत् है। इसी प्रथम ऋचा में अनेक विषय ऐसे हैं, जिनसे पता लगता है कि सेना का वर्णन है। जैसे (मा+रिषण्यत) इससे दिखलाया गया है कि प्रायः सैन्यपुरुष उन्मत्त होते हैं, निरपराध प्रजाओं को लूटते मारते रहते हैं, अतः यहाँ शिक्षा देते हैं कि हे सैन्यनायको ! तुम किसी निरपराधी की हिंसा मत करो ॥१॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मोपासनाद्वारा ऐश्वर्यप्राप्त योद्धाओं के गुण और उनका कर्तव्य वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रस्थावानः) हे गमनशील योद्धाओ ! (आगन्त) आप रक्षार्थ आह्वान किये गये आवें (मा, रिषण्यत) न आने से प्रजा को हिंसित मत करें (समन्यवः) आप शत्रुओं के ऊपर क्रोध करनेवाले हैं, केवल क्रोध ही नहीं, किन्तु (स्थिरा, चित्, नमयिष्णवः) स्थावरों को भी कम्पायमान करनेवाले हैं, इससे (मा, अपस्थात) हम सब प्रजाओं से प्रतिकूलस्थिति मत करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उन वीर योद्धाओं का वर्णन है, जिनके तेज से भयभीत होकर दिशाएँ कम्पायमान हो जाती हैँ, या यों कहो कि जो अपने रौद्रभाव से सबको पददलित करके सभ्यता का राज्य स्थापित करते हैं, उन योद्धाओं से प्रजाजनों की प्रार्थना है कि आप हमारे अनुकूल होकर हमें सुराज्य प्राप्त कराएँ, जिससे हमें सब प्रकार की अनुकूलता प्राप्त हो और हम अन्नादि धनों से सम्पन्न होकर परमात्मोपासन में प्रवृत्त रहें, हे विजयी योद्धाओ ! आप हम प्रजाओं के प्रतिकूल न वर्तते हुए सदैव हमारा हितचन्तिन करो अर्थात् क्षात्रधर्म को परमात्मा की आज्ञानुकूल वर्तो, जो तुम्हारा परमकर्तव्य है ॥१॥
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शिव शंकर शर्मा

सैन्यवर्णनमारभते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रस्थावानः=सतां रक्षणाय सदा प्रस्थानशीला मरुन्नामकाः सैन्यजनाः। यूयमागन्त=आगच्छत=सर्वत्र प्राप्नुत। मा रिषण्यत=निरपराधिनं कमपि मा हिंस्त। समन्यवः=मन्युः=क्रोधः तेन सहिताः। मा अपस्थात=मा तिष्ठत। यतो यूयम्। स्थिराचित्=स्थिराणि दृढान्यपि वस्तूनि। नमयिष्णवः=नमयितारः। दृढानामपि पर्वतादीनां कम्पयितारः स्थ। अतो यूयं क्रोधं करिष्यथ तदा प्रजामध्ये महती हानिर्भविष्यति ॥१॥
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आर्यमुनि

सम्प्रति परमात्मोपासनया लब्धैश्वर्याणां योद्धॄणां गुणास्तत्कर्तव्यं च वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रस्थावानः) हे प्रस्थानशीलायोद्धारः ! (आगन्त) मद्रक्षायै आहूताः सन्त आगच्छत (मा, रिषण्यत) अनागमनेन मा हिंस्त (समन्यवः) यूयम् शत्रूपरिक्रोधसहिता तथा (स्थिरा, चित्, नमयिष्णवः) स्थावराणामपि कम्पयितारः अतः (मा, अपस्थात) मद्विरुद्धं मा स्थितिं कार्षिष्ट ॥१॥