उ॒त सु त्ये प॑यो॒वृधा॑ मा॒की रण॑स्य न॒प्त्या॑ । ज॒नि॒त्व॒नाय॑ मामहे ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
uta su tye payovṛdhā mākī raṇasya naptyā | janitvanāya māmahe ||
पद पाठ
उ॒त । सु । त्ये इति॑ । प॒यः॒ऽवृधा॑ । मा॒की इति॑ । रण॑स्य । न॒प्त्या॑ । ज॒नि॒ऽत्व॒नाय॑ । म॒म॒हे॒ ॥ ८.२.४२
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:42
| अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:7
| मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:42
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शिव शंकर शर्मा
ईश्वर की विभूति दिखलाते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - पूर्वोक्त सूक्त से इन्द्रवाच्य परमात्मा की स्तुति करके अन्त में आश्चर्य्यजनक उससे निर्मित द्यावापृथिवी की स्तुति दिखलाते हैं, इससे संसार के भी गुण ज्ञातव्य हैं, यह शिक्षा होती है, यथा−(उत) और (त्ये) परमप्रसिद्ध द्युलोक और पृथिवीलोक के गुणों को हम विद्वान् (जनित्वनाय) ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति के लिये (सुमामहे) प्रकाशित करते हैं। वे द्यावापृथिवी कैसी हैं (पयोवृधा) दूध जल आदि मधुर पदार्थों को बढ़ानेवाली। पुनः (रणस्य) रमणीय वस्तु को (माकी) निर्माण करनेवाली। पुनः (नप्त्या) पतनशील नहीं अर्थात् अविनश्वर ऐसी द्यावापृथिवी के गुणों को सबही विद्वान् प्रकाशित करें ॥४२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! परमेश्वर के विशेष ज्ञान के लिये उनकी विभूतियाँ अवश्य अध्येतव्य हैं, जो इन पृथिव्यादि लोकों के वास्तविक तत्त्वों को नहीं जानते हैं वे इनके रचयिता को कैसे जान सकते हैं, क्योंकि वह इन्हीं के द्वारा प्रकाशित होता है ॥४२॥
टिप्पणी: यह अष्टम मण्डल का द्वितीय सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (उत) और (त्ये) वह आपकी दो शक्तियें जो (सु) सुन्दर (पयोवृधा) जल से बढ़ी हुई (माकी) मान करनेवाली (रणस्य, नप्त्या) जिनसे संग्राम नहीं रुकता (जनित्वनाय) उनकी उत्पत्ति के लिये (मामहे) प्रार्थना करता हूँ ॥४२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में कर्मयोगी के प्रति जिज्ञासु की प्रार्थना है कि आप कृपा करके हमको जल से बढ़ी हुई दो शक्ति प्रदान करें, जिनसे हम शत्रुओं का प्रहार कर सकें अर्थात् जल द्वारा उत्पन्न किया हुआ “वरुणास्त्र” जिसकी दो शक्ति विख्यात हैं, एक−शत्रुपक्ष के आक्रमण को रोकनेवाली “निरोधशक्ति” और दूसरी−आक्षेप करनेवाली “प्रहार शक्ति” ये दो शक्ति जिसके पास हों, वह शत्रु से कभी भयभीत नहीं होता और न शत्रु उसको वशीभूत कर सकता है, इसलिये यहाँ उक्त दो शक्तियों की प्रार्थना की गई है ॥४२॥ यह दूसरा सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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शिव शंकर शर्मा
ईशविभूतिं दर्शयति।
पदार्थान्वयभाषाः - अनेन सूक्तेन इन्द्रवाच्यं महेशं स्तुत्वा तदन्ते तेन निर्मितयोर्द्यावापृथिव्योः स्तुतिर्दर्श्यते। एतेन संसारस्यापि गुणा ज्ञातव्या इति शिक्षते। तथाहि उत=अथापि। वयं सर्वे विद्वांसः। त्ये=ते सुप्रसिद्धे द्यावापृथिव्यौ। जनित्वनाय=विज्ञानजननाय=ज्ञानविज्ञानप्राप्तये। सुमामहे =सुस्तुमः, एतयोर्गुणान् प्रकाशयाम इत्यर्थः। कीदृश्यौ त्ये। पयोवृधा=पयोवृधौ=पयसो मधुरमयस्य पदार्थस्य वर्धयित्र्यौ। पुनः। रणस्य=रमणीयवस्तुनः। माकी= निर्मात्र्यौ। पुनः। नप्त्या=नप्त्ये=न पतनशीले अविनश्वरे इत्यर्थः ॥४२॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अथ च (त्ये) ते द्वे शक्ती (सु) शोभने (पयोवृधां) जलेन वृद्धिं प्राप्ते (माकी) मानकर्त्र्यौ (रणस्य, नप्त्या) संग्रामस्य न पातयित्र्यौ (जनित्वनाय) तयोरेव जननाय (मामहे) प्रार्थयामहे ॥४२॥ इति द्वितीयं सूक्तं चतुर्विंशतितमो वर्गश्च समाप्तः ॥