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इन्द्र॒ इत्सो॑म॒पा एक॒ इन्द्र॑: सुत॒पा वि॒श्वायु॑: । अ॒न्तर्दे॒वान्मर्त्याँ॑श्च ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra it somapā eka indraḥ sutapā viśvāyuḥ | antar devān martyām̐ś ca ||

पद पाठ

इन्द्र॑ । इत् । सो॒म॒ऽपाः । एकः॑ । इन्द्रः॑ । सु॒त॒ऽपाः । वि॒श्वऽआ॑युः । अ॒न्तः । दे॒वान् । मर्त्या॑न् । च॒ ॥ ८.२.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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शिव शंकर शर्मा

वही सब का आयु भी है, ऐसा ध्यान करे।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवान्+मर्त्यान्+च) देवताओं और मनुष्यों के (अन्तः) मध्य में (इन्द्रः+इत्) इन्द्रवाच्य परमात्मा ही (सोमपाः) निखिल पदार्थों का रक्षक वा अनुग्राहक है। (एकः+इन्द्रः) एक इन्द्र ही (सुतपाः) यज्ञार्थ निष्पन्न वस्तुओं का ग्रहण करनेवाला है। और (विश्वायुः) सम्पूर्ण प्राणियों का आयुः=जीवन है। अतः वही केवल उपास्यदेव है ॥४॥
भावार्थभाषाः - सूर्य्य आदि देव तथा नृप प्रभृति मनुष्य कदापि भी न उपासनीय, न ध्यातव्य, न पूज्य और न अर्चनीय हैं, केवल एक ईश्वर ही सकल मनुष्यों का सेव्य है। इस ऋचा से यह शिक्षा भगवान् देते हैं। इस हेतु ऋचा में इन्द्रः+इत्=इन्द्र ही, एकः इन्द्रः=एक इन्द्र ही इत्यादि पद आते हैं। सोम और सुत इन दोनों शब्दों के अर्थ में भेद है। समस्त पदार्थवाची सोम शब्द और यज्ञ के लिये जो पदार्थ प्रस्तुत किये जाते हैं, वे सुत। सुत शब्द यज्ञ के लिये भी आता है ॥४॥
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आर्यमुनि

अब कर्मयोगी का महत्त्व कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवान्, मर्त्यान्, च, अन्तः) विद्वान् तथा सामान्य पुरुषों के मध्य (विश्वायुः) विश्व को वशीभूत करने की इच्छावाला (इन्द्रः, इत्) कर्मयोगी ही (सोमपाः) परमात्मसम्बन्धि ज्ञान पाने योग्य होता और (इन्द्रः, एकः) केवल कर्मयोगी ही (सुतपाः) सांसारिक ज्ञान प्राप्त करता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में कर्मयोगी का महत्त्व वर्णन किया गया है कि विश्व को वशीभूत करनेवाला कर्मयोगी परमात्मसम्बन्धी तथा सांसारिक ज्ञान उपलब्ध करता है, इसलिये पुरुष को कर्मयोगी बनना चाहिये। या यों कहो कि देव तथा मनुष्यों के बीच कर्मयोगी ही इस विविध विश्व के ऐश्वर्य्य को भोगता है, इसलिये अभ्युदय की इच्छावाले पुरुषों का कर्तव्य है कि वह उस विश्वायु कर्मयोगी की संगति से अभ्युदय प्राप्त करें ॥४॥
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शिव शंकर शर्मा

स एव सर्वेषामायुरप्यस्तीति ध्येयम्।

पदार्थान्वयभाषाः - अन्ये सूर्य्यादयो देवा नृपादयो मनुष्याश्च नोपास्या न ध्यातव्या न यज्ञे पूजनीया वा। केवलमीश्वर एव सर्वेषां नृणां सेव्य इति शिक्षत अनया। यथा−इन्द्र इद्=इन्द्रवाच्यः परमात्मैव। एवार्थ इत्। सोमपाः=सोमान् खाद्यादीन् यवादीन् वा पदार्थान् पिबति अनुगृह्णाति पाति रक्षति वा यः स सोमपाः समस्तपदार्थरक्षकः। सोमशब्दो वेदे पदार्थवचनः। अतएव। देवान् अन्तः=देवानां मध्ये। च=पुनः। मर्त्यान् अन्तः=मर्त्यानां मध्ये। एक इन्द्र एव। सुतपाः=यज्ञार्थं निष्पादितानि वस्तूनि सुताः तान् पिबति पातीति वा सुतपाः। पुनः। इन्द्र एव। विश्वायुः=विश्वेषां सर्वेषां प्राणिनामायुरायुःस्वरूपः। सर्वेषां प्राणानामपि प्राण इन्द्र एव। अतः स एव एक उपास्य इति फलितम् ॥४॥
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आर्यमुनि

अथ कर्मयोगिनः महत्त्वं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवान्, मर्त्यान्, च, अन्तः) विदुषां साधारणजनानां च मध्ये (विश्वायुः) विश्वं वशीकर्तुमिच्छः (इन्द्रः, इत्) कर्मयोग्येव (सोमपाः) परमात्मसम्बन्धिज्ञानलाभार्हः (इन्द्रः, एकः) इन्द्र एव केवलः (सुतपाः) सांसारिकज्ञानलाभार्हो भवति ॥४॥