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गा॒थश्र॑वसं॒ सत्प॑तिं॒ श्रव॑स्कामं पुरु॒त्मान॑म् । कण्वा॑सो गा॒त वा॒जिन॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

gāthaśravasaṁ satpatiṁ śravaskāmam purutmānam | kaṇvāso gāta vājinam ||

पद पाठ

गा॒थऽश्र॑वसम् । सत्ऽप॑तिम् । श्रवः॑ऽकामम् । पु॒रु॒ऽत्मान॑म् । कण्वा॑सः । गा॒त । वा॒जिन॑म् ॥ ८.२.३८

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:38 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:38


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शिव शंकर शर्मा

इससे इन्द्र के विशेषण कहे जाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (कण्वासः१) हे स्तुतिपाठक विद्वानो ! (गाथश्रवस२म्) जिसके यश गाने योग्य हैं, जो (सत्पतिम्) सज्जनों का पालक है, जो (श्रवस्कामम्) मनुष्यों का यशोऽभिलाषी है, जो (पुरुत्मा३नम्) सबका आत्मा है। यद्वा जो सबमें व्यापक है और जो (वाजिनम्) परमज्ञानी है, (गात) उसकी विभूतियों को गाओ ॥३८॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! परमात्मा की विभूति अनन्ता मनोहारिणी महामहाश्चर्य्या और सुखविधायिनी है, उसको गाओ। वह महादेव सन्तों का पति है। सब यशस्वी हों, यह वह चाहता है और सर्वत्र स्थित होकर वह सबको आनन्द पहुँचा रहा है। उसकी उपासना करो ॥३८॥
टिप्पणी: १−कण्व=शब्दार्थक कण धातु से कण्व बनता है जो परमात्मा के यशों का गान करे, वह कण्व। एक कण्व ऋषि भी सुप्रसिद्ध हुए हैं, उनका ग्रहण यहाँ नहीं है। २−गाथश्रवः=गाथ=गानीय=गाने योग्य। श्रवस्=यश, कीर्त्ति, श्रुति, वेद, विज्ञान आदि। ३−पुरुत्मा=पुरु+आत्मा। यहाँ आकार का लोप हो गया है ॥३८॥
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आर्यमुनि

अब कर्मयोगी की स्तुति करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (कण्वासः) हे विद्वानो ! (गाथश्रवसं) वर्णनीय कीर्तिवाले (सत्पतिं) सञ्जनों के पालक (श्रवस्कामं) यश को चाहनेवाले (पुरुत्मानं) अनेक रूपोंवाले (वाजिनं) वाणियों के प्रभु कर्मयोगी की (गात) स्तुति करो ॥३८॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् याज्ञिक पुरुषों को उचित है कि वह विस्तृत कीर्तिवाले, सञ्जनों के पालक, यशस्वी और सब विद्याओं के ज्ञाता कर्मयोगी की स्तुति करें, ताकि वह प्रसन्न होकर सब विद्वानों की कामनाओं को पूर्ण करे ॥३८॥
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शिव शंकर शर्मा

अनयेन्द्रं विशिनष्टि।

पदार्थान्वयभाषाः - हे कण्वासः=कण्वाः। कणतिः शब्दकर्मा। कणन्ति स्तुवन्ति ये ते कण्वाः स्तुतिपाठका विद्वांसः। यूयम्। गाथश्रवसम्=गातव्ययशसम्। गाथं गानीयं श्रवो यशो यस्य तं गाथश्रवसम्। सत्पतिम्। श्रवस्कामम्=जनानां श्रवःसु यशःसु कामो यस्य तम्। पुरुत्मानम्=पुरूणां सर्वेषां प्राणिनामात्मानम्। यद्वा। बहुषु प्रदेशेषु अतन्तं सततं गच्छन्तम्। पुनः। वाजिनम्=ज्ञानमयम्। ईदृशमिन्द्रम्। गात=गायत। ईश्वरस्य विभूतिमुद्दिश्य गायतेत्यर्थः ॥३८॥
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आर्यमुनि

अथ कर्मयोगिनः स्तुतिः कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (कण्वासः) हे विद्वांसः ! (गाथश्रवसं) गातव्यकीर्तिं (सत्पतिं) सतां पालकं (श्रवस्कामं) यशसः कामयितारं (पुरुत्मानं) बहुविधरूपधारकं (वाजिनं) वाचां स्वामिनं (गात) स्तुत ॥३८॥