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प्रभ॑र्ता॒ रथं॑ ग॒व्यन्त॑मपा॒काच्चि॒द्यमव॑ति । इ॒नो वसु॒ स हि वोळ्हा॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prabhartā rathaṁ gavyantam apākāc cid yam avati | ino vasu sa hi voḻhā ||

पद पाठ

प्रऽभ॑र्ता । रथ॑म् । ग॒व्यन्त॑म् । अ॒पा॒कात् । चि॒त् । यम् । अव॑ति । इ॒नः । वसु॑ । सः । हि । वोळ्हा॑ ॥ ८.२.३५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:35 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:23» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:35


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शिव शंकर शर्मा

इन्द्र से सुरक्षित जन अभ्युदय पाता है, यह इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रभर्ता) सकल प्राणियों का सब प्रकार से भरण-पोषण करनेवाला यद्वा शत्रुओं का संहारकर्त्ता इन्द्र (अपाकात्+चित्) अज्ञानी वा ज्ञानी शत्रु से यद्वा विविध विघ्नों से (यम्) जिस (रथम्) रत=परमात्मरत (गव्यन्तम्) परिष्कृत सुन्दर वाणी से स्तुति करनेवाले भक्त की (अवति) रक्षा करता है। (सः+हि) वही (इनः) इस जगत् में प्रभु=स्वामी और (वसु+वोढा) वही धन का अधिपति होता है ॥३५॥
भावार्थभाषाः - सब बाधाओं से जिस भक्त को ईश्वर बचाता है, वही जनों और धनों का अधिपति होता है ॥३५॥
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आर्यमुनि

अब कर्मयोगी अपने राष्ट्र को उत्तम मार्गों द्वारा सुसज्जित करे, यह कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रभर्ता) जो प्रहरणशील कर्मयोगी (अपाकात्) अपरिपक्वबुद्धिवाले तथा (चित्) अन्य से (यं, गव्यन्तं, रथं) प्रकाश की इच्छा करनेवाले जिस रथ की (अवति) रक्षा करता है (सः, हि) वही कर्मयोगी (इनः) प्रभु होकर (वसु) रत्नों का (वोळहा) धारण करनेवाला होता है ॥३५॥
भावार्थभाषाः - जो कर्मयोगी मार्गों को विस्तृत, साफ सुथरे तथा प्रकाशमय बनाता है, जिसमें रथ तथा मनुष्यादि सब आरामपूर्वक सुगमता से आ जा सकें, वही प्रभु होता और वही श्रीमान्=सब रत्नादि पदार्थों का स्वामी होता है ॥३५॥
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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रेण रक्षितो जनोऽभ्युदयं प्राप्नोतीत्यनया दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - प्रभर्ता=सर्वेषां प्रकर्षेण भर्ता पालकः। शत्रूणां प्रहर्ता वा इन्द्रः। रथम्=रमते परमात्मनि आनन्दति यः स रथः परमात्मरतस्तम्। गव्यन्तम्=गाः स्तुतिरूपा वाच इच्छन्तम्। यं स्तोतारम्। अपाकात्=अविपक्वप्रज्ञात् शत्रोः। चिच्छब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः। विपक्वप्रज्ञादपि शत्रोः। अवति=रक्षति। स हि=स एव। इनः=जगति प्रभुर्भवति। तथा। वसु=धनम्। वोढा=धनस्य साधुवाही भवति। वहेः साधुकारिणि तृन्। अतः न लोकाव्ययेति कर्मणि षष्ठीप्रतिषेधः ॥३५॥
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आर्यमुनि

अथ कर्मयोगी स्वराष्ट्रं सुपथं कुर्यादिति कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रभर्ता) यः प्रहरणशीलः कर्मयोगी (अपाकात्) अपरिपक्वबुद्धिसकाशात् (चित्) अन्यस्मादपि (यं, गव्यन्तं, रथं) यं प्रकाशमिच्छन्तं रथं (अवति) रक्षति (सः, हि) स हि कर्मयोगी (इनः) प्रभुः सन् (वसु) रत्नस्य (वोळहा) धर्ता भवति ॥३५॥