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तं ते॒ यवं॒ यथा॒ गोभि॑: स्वा॒दुम॑कर्म श्री॒णन्त॑: । इन्द्र॑ त्वा॒स्मिन्त्स॑ध॒मादे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ te yavaṁ yathā gobhiḥ svādum akarma śrīṇantaḥ | indra tvāsmin sadhamāde ||

पद पाठ

तम् । ते॒ । यव॑म् । यथा॑ । गोभिः॑ । स्वा॒दुम् । अ॒क॒र्म॒ । श्री॒णन्तः॑ । इन्द्र॑ । त्वा॒ । अ॒स्मिन् । स॒ध॒ऽमादे॑ ॥ ८.२.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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शिव शंकर शर्मा

पुनरपि उस विषय को दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (श्रीणन्तः) पाक करते हुए हम उपासकगण (यथा+यव१म्) यवान्न के समान (तम्) उस पाक को (गोभिः) गौ के दूध से (ते) तेरे लिये (स्वादुम्) स्वादु (अकर्म) करते हैं और (अस्मिन्) इस (सधमा२दे) सधमाद के ऊपर (त्वा) तुझको स्थापित करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा को अपने हृदय में देखते हुए उसका ध्यान और स्तुति करे और बाह्य जगत् में उसकी विलक्षणलीला देख-२ कर उसकी कीर्ति का मनोहर गान करते हुए मन को तृप्त करे ॥३॥
टिप्पणी: १−यवं यथा−यवान्न का वर्णन वेदों में बहुधा आता है। यथा−(१) व्रीहयश्च से यवाश्च मे माषाश्च मे। इत्यादि ॥ यजु० १८।१२ ॥ व्रीहि, यव (जौ), माष आदि अन्न हमें प्राप्त हो। (२)−पयसो रूपं यद् यवा दध्नो रूपं कर्कन्धूनि। सोमस्य रूपं वाजिनं सौम्यस्य रूपिमामिक्षा ॥ य० १९।२३ ॥ जो जौ हैं, वे दूध के रूप, जो बदरी (बेर) फल हैं, वे दही के रूप, जो वाजिन अमिक्षा है, वह चरु का रूप है। गरम दूध में दही डालने से जो घनभाग होता है, वह आमिक्षा और अन्य भाग वाजिन कहलाता है। यव की खेती का वर्णन इस प्रकार है। दशस्यन्ता मनवे पूर्व्यं दिवि यवं वृकेण कर्षथः ॥ ८।२२।६ ॥ मनुष्य के उपकारार्थ अच्छे खेत में राजा और अमात्यादि वर्ग यव की खेती करावें। यव मिश्रित अन्न−यत्ते सोम गवाशिरो यवाशिरो भजामहे। वातापे पीव इद्भव ॥ ऋ० १।१८७।९ ॥ सोम रस में गोदूध और जौ को मिलाकर खाने से शरीर बहुत पुष्ट होता, यह इसका आशय है। यवमिश्रित अन्न का नाम यवाशिर है। पूर्व समय में ऋषियों का मुख्य भोजन यवाशिर था। २−सधमाद=सह माद्यन्ति हृष्यन्ति क्रीडन्ति मनुष्या यत्र स सधमादः क्रीडागृहम्। जहाँ सब कोई साथ ही खावें पीवें और आनन्द करें, उस क्रीड़ागृह का नाम वेदों में सधमाद आया है। यथा−“तया मदन्तः सधमादेषु वयं स्याम पतयो रयीणाम्” ॥ य० १९।४४ ॥ क्रीड़ागृहों में नाना पदार्थों को भोग करते हुए हम समस्त धनों के अधिपति होवें। आ नो बर्हिः सधमादे बृहद्दिवि देवाँ ईले सादया सप्त होतृन् ॥ ऋ० १०।३५।९ ॥ हमारे बहुत प्रकाशमान और पवित्र सधमाद स्थान में बैठे हुए उन विद्वानों और आनन्दप्रद मनुष्यों से प्रार्थना करता हूँ, वे शान्ति से बैठें और सप्त होताओं को एकत्र बैठावें। यह शब्द सूचित करता है कि पूर्व समय आर्य्यों का एक क्रीड़ास्थान हुआ करता था, जहाँ सब कोई मिलकर आनन्द क्रीड़ा करते थे। वहाँ प्रजा और राजा दोनों साथ मिलकर खाते पीते और आनन्द करते थे, क्योंकि इस प्रकार का वर्णन बहुधा वेदों में आता है। तदनुसार लोग वरतते होंगे, इसमें सन्देह ही क्या ॥३॥
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आर्यमुनि

अब यज्ञ में ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी का उपदेशार्थ आह्वान कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्दनशील कर्मयोगिन् ! (ते) तुम्हारे लिये (तं, यवं) अनेक पदार्थ मिश्रित उस रस को (गोभिः) गव्य पदार्थों से (यथा, स्वादुं) विधिपूर्वक स्वादु (श्रीणन्तः) सिद्ध करनेवाले हम लोगों ने (अकर्म) किया है (अस्मिन्, सधमादे) इस सपीतिस्थान में (त्वा) आपका आह्वान करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - याज्ञिक लोग ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी पुरुषों का यज्ञस्थान में आह्वान करते हैं कि हम लोगों ने आपके लिये गव्य पदार्थों द्वारा स्वादु रस सिद्ध किया है, आप कृपा करके हमारे यज्ञ को सुशोभित करते हुए इसका पान करें और हमारे यज्ञ में ज्ञानयोग तथा कर्मयोग का उपदेश कर हमें कृतकृत्य करें। स्मरण रहे कि यज्ञों में जो सोमादि रस सिद्ध किये जाते हैं, वे आह्लादक होते हैं, मादक नहीं ॥३॥
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शिव शंकर शर्मा

भूयोऽपि तमर्थमाचष्टे।

पदार्थान्वयभाषाः - यान्यपि लौकिकानि कर्माणि क्षेत्रकर्षणवाणिज्य- पाकादीन्यस्माकं भवेयुस्तानि सर्वाणीश्वरदृष्ट्यैव विधातव्यानि। यत् किमपि अशनं पानं स्वापो विश्रामो गमनं यात्रा तत्सर्वमुपकारार्थमेव विधातव्यमित्यर्थः। सर्वस्मिन् काले च परमात्माध्येयस्तं विस्मृत्य किमपि न करणीयमित्यनयर्चा शिक्षते यथा−हे इन्द्र ! यवं यथा=यथा भक्षणार्थं नानास्वादिष्ठद्रव्याणि मिश्रीकृत्य यवचूर्णैः पाकं विदधति तथा वयम्। गोभिः=गव्यैः पयोभिः। उपलक्षणमेतत्। विविधमधुरैर्मिष्टान्नैः। तं यवं=तं तं पाकम्। श्रीणन्तः=कुर्वन्तः सन्तः। यं स्वादुं=स्वादिष्ठम्। अकर्म=कुर्मः। तं पाकम्। ते=तुभ्यमेव समर्पयामः। हे इन्द्र=हे परमदेव ! अस्मिन्=दृश्यमाने हृदयरूपे। सधमादे=सहमदे सहानन्दकारिणि स्थाने। त्वा=त्वाम्। स्थापयामः=अत्र स्थापयित्वा तुभ्यं सर्वं निवेदयामः ॥३॥
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आर्यमुनि

अथ यज्ञे इन्द्रस्य उपदेशार्थमाह्वानमुच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्दनशील ! (ते) तुभ्यं (तं, यवं) तं बहुपदार्थमिश्रितं रसं (गोभिः) गव्यपदार्थैः (यथा, स्वादुं) येन विधिना स्वादुः स्यात् तथा (श्रीणन्तः) पचन्तो वयम् (अकर्म) अकार्ष्म (अस्मिन्, सधमादे) अस्मिन्सपीतिस्थाने (त्वा) त्वां आह्वयामः ॥३॥