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स्तुत॑श्च॒ यास्त्वा॒ वर्ध॑न्ति म॒हे राध॑से नृ॒म्णाय॑ । इन्द्र॑ का॒रिणं॑ वृ॒धन्त॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

stutaś ca yās tvā vardhanti mahe rādhase nṛmṇāya | indra kāriṇaṁ vṛdhantaḥ ||

पद पाठ

स्तुतः॑ । च॒ । याः । त्वा॒ । वर्ध॑न्ति । म॒हे । राध॑से । नृ॒म्णाय॑ । इन्द्र॑ । का॒रिण॑म् । वृ॒धन्तः॑ ॥ ८.२.२९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:29 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:22» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:29


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शिव शंकर शर्मा

फिर उसी अर्थ को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे सर्वद्रष्टा इन्द्रवाच्य परमात्मन् ! (स्तुतः) स्तुति करनेवाले साधुजन (च) और (याः) जो उनकी स्तुतियाँ हैं, वे दोनों मिलके (कारिणम्) सुखकारी (त्वा) तुझको अर्थात् तेरी कीर्ति को निज-२ कर्मों तथा प्रभावों से (वृधन्तः) बढ़ाते हुए (महे) महान् (राधसे) पूज्य पवित्र धन के लिये तथा (नृम्णाय) बल के लिये (वर्धन्ति) संसार की उन्नति में बढ़ते जाते हैं। यह आपकी महती कृपा है ॥२९॥
भावार्थभाषाः - हे परम इष्टदेव ! जो तेरी कीर्ति गाते हैं, उनका संसार में महोदय देखा जाता है। उनका अधःपतन नहीं होता। उनकी वाणी भी समुन्नता, शुद्धा, पवित्रतमा, सत्या, बहुभाषायुक्ता और नाना शब्दमयी होती है ॥२९॥
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आर्यमुनि

अब सत्कारानन्तर उनसे बल तथा धन के लिये प्रार्थना करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (स्तुतः) स्तोता लोग (कारिणं, वृधन्तः) क्रियाशील मनुष्यों को उत्साहित करते हुए (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (महे, राधसे) महान् धन के लिये (नृम्णाय) बल के लिये (त्वा) आपको (वर्धन्ति) स्तुति द्वारा बढ़ाते हैं (याः, च) और उनकी स्तुतियें आपको यश प्रकाशन द्वारा बढ़ाती हैं ॥२९॥
भावार्थभाषाः - हे कर्मयोगिन् ! स्तोता लोग कर्मशील पुरुषों को उत्साहित करते हुए आपसे धन तथा बल के लिये प्रार्थना करते हैं कि कृपा करके आप हमें पदार्थविद्या के आविष्कारों द्वारा उन्नत करें, जिससे हमारा यश संसार में विस्तृत हो और विशेषतया उन्नति को प्राप्त हो ॥२९॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमर्थमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! स्तुतः=स्तुवन्ति तव गुणान् गायन्ति ये ते स्तुतः स्तोतारः। स्तौतेः क्विप्। च पुनः। यास्तदीयाः स्तुतयः सन्ति ताः। उभये मिलित्वा। कारिणम्=सुखकारिणम्। त्वा=त्वाम् तव कीर्तिम्। स्वैः स्वैः शुभकर्मभिः प्रभावैश्च। वृधन्त=वर्धयन्तः सन्तः। महे=महते। राधसे=पूताय धनाय। तथा। नृम्णाय=बलाय च। वर्धन्ति=वर्धन्ते संसारोन्नतिषु सदा वर्धन्त इति तव महती कृपा ॥२९॥
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आर्यमुनि

अथ तौ सत्कृत्य बलादिकं प्रति प्रार्थ्येते।

पदार्थान्वयभाषाः - (स्तुतः) स्तोतारं (कारिणं, वृधन्तः) क्रियाशीलाञ्जनान् उत्साहयन्तः (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (महे, राधसे) महते धनाय (नृम्णाय) बलाय (च त्वा) त्वां (वर्धयन्ति) स्तुति द्वारा वर्धयन्ति (यः, च) यास्तदीयाः स्तुतयः ताश्च त्वां वर्धयन्ति ॥२९॥