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मो ष्व१॒॑द्य दु॒र्हणा॑वान्त्सा॒यं क॑रदा॒रे अ॒स्मत् । अ॒श्री॒र इ॑व॒ जामा॑ता ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mo ṣv adya durhaṇāvān sāyaṁ karad āre asmat | aśrīra iva jāmātā ||

पद पाठ

मो इति॑ । सु । अ॒द्य । दुः॒ऽहना॑वान् । सा॒यम् । क॒र॒त् । आ॒रे । अ॒स्मत् । अ॒श्री॒रःऽइ॑व । जामा॑ता ॥ ८.२.२०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:20 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:20


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शिव शंकर शर्मा

प्रेमातिशय दिखलाती हुई श्रुति कहती है।

पदार्थान्वयभाषाः - (दुर्हणावान्) दुर्हण नाम संसार का है, क्योंकि इसका हनन कोई कर नहीं सकता। वह संसार पोष्यस्वरूप से अधीन है जिसका, वह दुर्हणावान्। अथवा दुर्हणा=दुर्हिंसा, तद्वान्, अर्थात् दुष्टजनों का विनाशक वह इन्द्र (अस्मद्+आरे) हम भक्तजनों के निकट (अद्य) आज (सु) अच्छे प्रकार आवे। (सायम्+मो) सायंकाल न (करत्) करे। यहाँ दृष्टान्त देते हैं (अश्रीरः) श्रीरहित गुणविहीन (जामाता+इव) सलज्ज जामाता जैसे श्वशुरालय जाने में विलम्ब करता है, तद्वत् आप भी मेरे निकट आने में विलम्ब न करें ॥२०॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर की उपासना में विलम्ब न करना चाहिये। विक्षिप्त चित्त से आराधित परमात्मा प्रसन्न नहीं होता ॥२०॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अद्य) इस समय (दुर्हणावान्) शत्रुओं से न सहने योग्य हनन करनेवाले आप (अस्मत्, आरे) हमारे समीप आइये (सु) अति (सायं) विलम्ब (मा, करत्) मत करें (अश्रीरः) निर्धन (जामाता, इव) जामाता के समान ॥२०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि हे सर्वविद्यासम्पन्न कर्मयोगिन् ! आप शत्रुओं का हनन करनेवाले तथा विद्यादाता हैं। कृपा करके हमारे यज्ञ में पधारें। निर्धन जामाता के समान अति विलम्ब न करें अर्थात् जैसे निर्धन जामाता बिना सामग्री के ठीक समय पर नहीं पहुँच सकता, इस प्रकार आप अतिकाल न करें ॥२०॥
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शिव शंकर शर्मा

प्रेमातिशयं दर्शयन्ती श्रुतिराह।

पदार्थान्वयभाषाः - दुर्हणावान्=दुःखेन हन्तुं योग्यो दुर्हणः संसारः। रक्ष्यमाणत्वेन सोऽस्यास्तीति दुर्हणावान् संसाररक्षकः। परैर्दुःसहहननं दुर्हणं तद्वान् वा। इन्द्रः। अस्मद् आरे=अस्माकं समीपे। अद्येदानीम्। आयातु किन्तु। सु=सुष्ठु अतिशयेन। सायं=दिनस्यावसानम्। मो करत्=माकार्षीत्, विलम्बं माकार्षीदित्यर्थः। अत्र दृष्टान्तः। अश्रीर इव जामाता=जायते इति जा अपत्यं तस्य निर्माता जामाता दुहितुः पतिः। अश्रीर इव=न श्रीरश्रीः, अश्रीरस्यास्तीति अश्रीरः। मत्वर्थीयो रः। यथा शोभारहितो गुणैर्विहीनो जामाता असकृदाहूतोऽप्यासायङ्कालं विलम्बते। तद्वत्। हे भगवन् ! अस्मत्समीपागमनाय मा विलम्बिष्ठाः ॥२०॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अद्य) इदानीं (दुर्हणावान्) परैः दुःसहनवान् भवान् (अस्मत्, आरे) अस्माकं समीपे आगच्छन्तु (सु) अतिशयेन (सायं) विलम्बं (मा, करत्) मा कार्षीः (अश्रीरः) निर्धनः (जामाता) जामपत्यं माति सत्करोति स जामाता दुहितुः पतिरिव ॥२०॥