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यदी॑ घृ॒तेभि॒राहु॑तो॒ वाशी॑म॒ग्निर्भर॑त॒ उच्चाव॑ च । असु॑र इव नि॒र्णिज॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yadī ghṛtebhir āhuto vāśīm agnir bharata uc cāva ca | asura iva nirṇijam ||

पद पाठ

यदि॑ । घृ॒तेभिः॑ । आऽहु॑तः । वाशी॑म् । अ॒ग्निः । भर॑ते । उत् । च॒ । अव॑ । च॒ । असु॑रःऽइव । निः॒ऽनिज॑म् ॥ ८.१९.२३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:23 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:33» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:23


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (घृतेभिः) घृत आदि द्रव्यों से (आहुतः) तर्पित (अग्निः) अग्नि (यदि) जब (वाशीम्) शब्दकारिणी ज्वाला को (उच्चावच) ऊँचे-नीचे (भरते) करता है, तब (असुरः+इव) सूर्य्य के समान (निर्णिजम्) निजरूप को प्रकाशित करता है ॥२३॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार सूर्य्य उष्णता और प्रकाश से जगदुपकार करता है, तद्वत् अग्नि भी इस पृथिवी पर कार्य्य कर सकता है, यदि उसके गुणानुसार कार्य्य में लगा सकें ॥२३॥
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आर्यमुनि

अब यज्ञद्वारा उत्तम प्रजाओं का उत्पन्न होना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) यदि (अग्निः) परमात्मा (घृतेभिः, आहुतः) आज्याहुति द्वारा (आहुतः) सेवन किया जाय तो (उत्, च) ऊर्ध्वदेश में (अव, च) और अधोदेश में (वाशीम्, भरते) सुबुद्धि को उत्पन्न करके वाणी को पुष्ट करता है, जैसे (असुरः) असु=प्राणों को देनेवाला सूर्य (निर्णिजम्) सप्तविध रूपों को पुष्ट करता है ॥२३॥
भावार्थभाषाः - सुबुद्धि उत्पन्न करने अर्थात् बुद्धि को उत्तम बनाने के दो ही उपाय हो सकते हैं, एक−शुद्ध रसों का सेवन करना, दूसरा−विद्वानों की सङ्गति द्वारा सत्कर्मों में मन लगाना और ये दोनों यज्ञसाध्य हैं। घृतादि पवित्र आहुतियों द्वारा अन्तरिक्ष में मेघशुद्धि से सुन्दर वृष्टि होती है तथा भूलोक में वायु आदि पदार्थ शुद्ध होते हैं, जिससे पवित्र रसों की उत्पत्ति होकर उनके सेवन द्वारा सुबुद्धि होती है, इसी अभिप्राय से मनु जी ने कहा किः−अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥ मनु० ३।७५शास्त्रोक्त विधि से अग्नि में दी हुई आहुति अन्तरिक्षलोक को प्राप्त होती, अन्तरिक्ष से पवित्र वृष्टि, वृष्टि से पवित्र अन्न और पवित्र अन्न से पवित्र प्राणीजात उत्पन्न होते हैं, अतएव उचित है कि मेधा=पवित्र बुद्धि सम्पादन करने के लिये पुरुष को नित्य यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये ॥२३॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - घृतेभिः=घृतैर्घृतादिद्रव्यैः। आहुतस्तर्पितः। अग्निः। यदि=यदास्मिन् काले। वाशीम्=वाशनशीलां शब्दकारिणीं ज्वालाम्। उच्चावच=उर्ध्वमधस्ताच्च। भरते=संपादयति। तदा। असुरः= असून्=प्राणान् राति ददातीत्यसुरः सूर्य्यः। सूर्य्य इव। निर्णिजम्=आत्मरूपं प्रकाशयतीति शेषः ॥२३॥
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आर्यमुनि

अथ यज्ञसाधनेन उत्तमप्रजानामुत्पत्तिः कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) यदा (अग्निः) परमात्मा (घृतेभिः, आहुतः) आज्यैराहुतिभिः सेवितः स्यात् तदा (उत्, च) ऊर्ध्वं च (अव, च) अधश्च (वाशीम्, भरते) सुबुद्धिमुत्पाद्य वाणीं पुष्णते (असुरः) प्राणदः सूर्यः (निर्णिजम्, इव) यथा सप्तविधरूपाणि तथा ॥२३॥