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ति॒ग्मज॑म्भाय॒ तरु॑णाय॒ राज॑ते॒ प्रयो॑ गायस्य॒ग्नये॑ । यः पिं॒शते॑ सू॒नृता॑भिः सु॒वीर्य॑म॒ग्निर्घृ॒तेभि॒राहु॑तः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tigmajambhāya taruṇāya rājate prayo gāyasy agnaye | yaḥ piṁśate sūnṛtābhiḥ suvīryam agnir ghṛtebhir āhutaḥ ||

पद पाठ

ति॒ग्मऽज॑म्भाय । तरु॑णाय । राज॑ते । प्रयः॑ । गा॒य॒सि॒ । अ॒ग्नये॑ । यः । पिं॒शते॑ । सू॒नृता॑भिः । सु॒ऽवीर्य॑म् । अ॒ग्निः । घृ॒तेभिः॑ । आऽहु॑तः ॥ ८.१९.२२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:22 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:33» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:22


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शिव शंकर शर्मा

पुनः उसी विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे उपासक ! आप जो (तिग्मजम्भाय) जिसकी ज्वाला बहुत तीक्ष्ण है (तरुणाय) जो नित्य नूतन है और (राजते) जो शोभायमान हो रहा है, ऐसे (अग्नये) अग्नि के लिये अर्थात् अग्निहोत्रादि कर्म के लिये (प्रयः) विविध प्रकार के अन्नों को (गायसि) बढ़ाते हैं, यह अच्छा है, क्योंकि (यः+अग्निः) जो अग्नि (सूनृताभिः) प्रिय और सत्य वचनों से प्रसादित और (घृतेभिः) घृतादि द्रव्यों से (आहुतः) आहुत होने पर (सुवीर्य्यम्) शोभनबल को (पिंशते) देता है ॥२२॥
भावार्थभाषाः - हम मनुष्य जो अन्न पशु हिरण्य और भूमि आदि बढ़ाकर धन एकत्रित करें, वह केवल परोपकार के और यज्ञादि शुभकर्म के लिये ही करें। धन की क्या अवश्यकता है, इसको अच्छे प्रकार विचार सन्मार्ग में इसका व्यय करें ॥२२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे होता ! (तिग्मजम्भाय) तीक्ष्णमुखवाले (तरुणाय) नित्यनूतन (राजते) दीप्यमान (अग्नये) परमात्मा को उद्देश्य करके (प्रयः) हवि को (गायसि) स्तुतिसहित वह्नि में निःक्षिप्त करो (यः, अग्निः) जो परमात्मा (सूनृताभिः) सत्य तथा प्रिय वाणियों द्वारा तृप्त किया गया (घृतेभिः) घृताहुति द्वारा (आहुतः) सेवित (सुवीर्यम्) उपासक को सुन्दर वीर्य (पिंशते) विभक्त करता=देता है ॥२२॥
भावार्थभाषाः - जिस परमात्मा के करालकालरूप मुख में अनेक बलिष्ठ से बलिष्ठ प्राणी लय को प्राप्त हो जाते हैं, जो यज्ञ द्वारा सेवित और जो अपने उपासक को यथेष्ट बल प्रदान करता है, वही सबका सेव्य है। यहाँ “अग्नि” शब्द का भौतिकाग्नि अर्थ करना ठीक नहीं, क्योंकि सुवीर्यदानादिगुण भौतिकाग्नि में संभव नहीं हो सकते, इसलिये परमात्मा का ही ग्रहण करना चाहिये ॥२२॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमर्थमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - हे उपासक ! यत्त्वम्। तिग्मजम्भाय=तीव्रार्चिषे। तरुणाय=यूने। राजते=शोभमानाय। अग्नये। प्रयोऽन्नं गायसि= अग्निहोत्रादिकर्मसम्पादनाय अन्नं वर्धयसि। तत्साधीयः खलु। यतः योऽग्निः। सूनृताभिः=प्रियाभिः। सत्याभिश्च वाग्भिः स्तुतः। घृतेभिर्घृतैश्चाहुतः सन्। सुवीर्य्यं पिंशते=संयोजयति। पिश अवयवे ॥२२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतः ! (तिग्मजम्भाय) तीक्ष्णमुखाय (तरुणाय) नित्याय (राजते) दीप्यमानाय (अग्नये) परमात्मने (प्रयः) हविः (गायसि) स्तुत्वा वह्नौ निःक्षिप (यः, अग्निः) यः परमात्मा (सूनृताभिः) सत्यप्रियाभिर्वाग्भिः (घृतेभिः) घृतैश्च (आहुतः) तर्पितः सन् (सुवीर्यम्, पिंशते) सुष्ठुवीर्यं विभजते उपासकाय ॥२२॥