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तं गू॑र्धया॒ स्व॑र्णरं दे॒वासो॑ दे॒वम॑र॒तिं द॑धन्विरे । दे॒व॒त्रा ह॒व्यमोहि॑रे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ gūrdhayā svarṇaraṁ devāso devam aratiṁ dadhanvire | devatrā havyam ohire ||

पद पाठ

तम् । गू॒र्ध॒य॒ । स्वः॑ऽनरम् । दे॒वासः॑ । दे॒वम् । अ॒र॒तिम् । द॒ध॒न्वि॒रे॒ । दे॒व॒ऽत्रा । ह॒व्यम् । आ । ऊ॒हि॒रे॒ ॥ ८.१९.१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:1 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:29» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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शिव शंकर शर्मा

स्तुति का विधान करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यों ! (तम्) उस परमदेव की (गूर्धय) स्तुति कर जिसको (देवासः) मेधावीजन और सूर्य्यादि (दधन्विरे) प्रकाशित कर रहे हैं और जिस (हव्यम्) प्रणम्य देव को (देवत्रा) सर्व देवों अर्थात् पदार्थों में (आ+ऊहिरे) व्याप्त जानते हैं। वह कैसा है (स्वर्णरम्) सुख का और सूर्य्यादि देवों का नेता (देवम्) और देव है, पुनः वह (अरतिम्) विरक्त है, किन्हीं में आसक्त नहीं है ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये सूर्यादि पदार्थ अपने अस्तित्व से अपने जनक ईश्वर को दिखला रहे हैं ॥१॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मा के ऐश्वर्य्य का वर्णन करते हुए उसकी उपासना करने के लिये उपासक को प्रेरणा करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे उपासक ! (स्वर्णरम्, तम्) सबके नेता उस परमात्मा की (गूर्धय) स्तुति करो, क्योंकि (देवासः) दिव्यज्ञानवाले विद्वान् (देवम्, अरतिम्) उसी प्राप्तव्य परमात्मा को (दधन्विरे) प्राप्त करते हैं (हव्यम्) और सब कर्मों को (देवत्रा, ओहिरे) परमात्मा ही के अधीन=समर्पण करते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस सूक्त में अग्नि शब्द वाच्य परमात्मा की हेतुदर्शनपूर्वक विविधोपासनाओं का वर्णन किया गया है। “अग्नि” शब्द का अर्थ अग्रणी=अग्रगतिवाला आदि निरुक्तोक्त जानना चाहिये कि हे उपासक लोगो ! तुम सब कर्मों के प्रारम्भ में उस परमात्मा की स्तुति करो, क्योंकि वही सब कर्मों का नेता है, वही पुरुष दिव्यज्ञानवाला तथा परम चतुर है, जो परमात्मा के शरण में प्राप्त होकर सब कर्मों को करता और अन्त में उसी के अर्पण कर देता है ॥१॥
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शिव शंकर शर्मा

स्तुतिविधानं करोति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! तम्=परमदेवम्। गूर्धय=प्रार्थयस्व। गूर्ध स्तुतौ। यं देवासः=बुद्धिमन्तो मनुष्याः सूर्य्यादयश्च। दधन्विरे=धन्वन्ति= प्रकाशयन्ति। यं च। हव्यम्=आह्वातव्यं प्रणम्यम्। देवत्रा=देवेषु प्रकृतिषु मध्ये। आ+ऊहिरे=आवहन्ति=जानन्ति। कीदृशं तम्। स्वर्णरम्=स्वः सुखस्य सूर्य्यादेश्च। नरम्=नेतारम्। पुनः। देवम्। पुनः। अरतिम्=विरक्तं न केष्वप्यासक्तम् ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मैश्वर्यं वर्णयता तदुपासनायै उपासकः प्रेर्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे उपासक ! (स्वर्णरम्, तम्) सर्वेषां नेतारं तं परमात्मानम् (गूर्धय) स्तुहि यतः (देवासः) दिव्यज्ञानवन्तः (देवम्, अरतिम्) दिव्यं प्राप्तव्यम् (दधन्विरे) धन्वन्ति (हव्यम्) सर्वं कर्म च (देवत्रा, ओहिरे) परमात्माधीनं प्रापयन्ति ॥१॥