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तत्सु न॑: सवि॒ता भगो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा । शर्म॑ यच्छन्तु स॒प्रथो॒ यदीम॑हे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tat su naḥ savitā bhago varuṇo mitro aryamā | śarma yacchantu sapratho yad īmahe ||

पद पाठ

तत् । सु । नः॒ । स॒वि॒ता । भगः॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । शर्म॑ । य॒च्छ॒न्तु॒ । स॒ऽप्रथः॑ । यत् । ईम॑हे ॥ ८.१८.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:18» मन्त्र:3 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:25» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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शिव शंकर शर्मा

सब ही उपकार करें, यह इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सविता) संसार का जनक (भगः) भजनीय (वरुणः) स्वीकरणीय (मित्रः) सर्वस्नेही (अर्य्यमाः) श्रेष्ठों से माननीय परमात्मा (नः) हमको (सप्रथः) सर्वत्र विस्तीर्ण (तत्) वह (शर्म) कल्याण वा गृह (सु+यच्छन्तु) अच्छे प्रकार देवें (यत्) जिसको हम (ईमहे) चाहते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - यदि हम धर्मभाव से भावित होकर ईश्वर से प्रार्थना करें, तो वह अवश्य स्वीकृत हो ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सविता) जो विद्वान् सबका शासक है, जो (भगः) राष्ट्र का हित अहित कार्य में प्रवर्तक वा निवर्तक है, (वरुणः) जो पाप से निवर्तक है, (मित्रः) जो सब पर स्नेह रखनेवाला है, (अर्यमा) जो अर्य=परमात्मा के ज्ञानवाला है, ये सब (नः) हमको (तत्) उस (सप्रथः) विस्तीर्ण (शर्म) सुख को (यच्छन्तु) दें (यत्, ईमहे) जैसा हम लोग चाहते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वान् सबको वशीभूत रखनेवाला, राष्ट्र के हिताहित कार्य्य को सोचनेवाला, पापों से बचानेवाला, सबका मित्र और अनुष्ठानसम्पन्न है, वह हमारी शुभ कामनाओं को पूर्ण करे, या यों कहो कि जो विद्वान् परमात्मप्राप्तिरूप ज्ञान के प्रकाशक, ऐश्वर्य्यशाली तथा नाना प्रकार की शक्तियों से वस्तुओं के तेजतिमिर को निवृत्त करनेवाले और जो एकमात्र परमात्मा के उपासक हैं, उनके सत्सङ्ग से मनुष्य को विद्यावृद्धि द्वारा सुख की प्राप्ति होती है ॥३॥
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शिव शंकर शर्मा

सर्वः खलु उपकुर्य्यादिति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - सविता=प्रसविता=जनयिता संसारस्य। भगः=भजनीयः। वरुणः=वरणीयः=स्वीकरणीयः। मित्रः=सर्वस्नेही। पुनः। अर्य्यमा=अर्य्यैः श्रेष्ठैर्माननीयः। एतानि ईश्वरनामानि। नोऽस्मभ्यम्। सप्रथः=सर्वतो विस्तीर्णम्। तत्। शर्म=सुखं गृहं सुयच्छन्तु=ददतु। यच्छर्म। वयमीमहि=याचामहे ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सविता) प्रेरको विद्वान् (भगः) भजनीययोजकः (वरुणः) पापान्निवारकः (मित्रः) स्नेहवर्धकः (अर्यमा) परमात्मज्ञः एते (नः) अस्मभ्यम् (सप्रथः) विस्तीर्णम् (तत्, शर्म) तत्सुखं (यच्छन्तु) ददतु (यत्, ईमहे) यादृशं याचामः ॥३॥