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य॒ज्ञो ही॒ळो वो॒ अन्त॑र॒ आदि॑त्या॒ अस्ति॑ मृ॒ळत॑ । यु॒ष्मे इद्वो॒ अपि॑ ष्मसि सजा॒त्ये॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yajño hīḻo vo antara ādityā asti mṛḻata | yuṣme id vo api ṣmasi sajātye ||

पद पाठ

य॒ज्ञः । ही॒ळः । वः॒ । अन्त॑रः । आदि॑त्याः । अस्ति॑ । मृ॒ळत॑ । यु॒ष्मे इति॑ । इत् । वः॒ । अपि॑ । स्म॒सि॒ । स॒ऽजा॒त्ये॑ ॥ ८.१८.१९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:18» मन्त्र:19 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:28» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:19


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (आदित्याः) आचार्य्यो ! हम लोगों ने (यज्ञः) जो शुभकर्म (हीळः) किया है, वह (वः) आपके (अन्तरः) समीप में (अस्ति) वर्तमान होवे अर्थात् हमारे कर्मों को आप जानें, अतः (मृळत) हमको सुखी कीजिये। (युष्मे+उत्) आपके ही आधीन हम (स्मसि) हैं (अपि) और हम सब (वः) आपके (सजात्ये) सजातित्व में वर्तमान हैं ॥१९॥
भावार्थभाषाः - शिष्यों को उचित है कि अपने शुभाशुभकर्म आचार्यों के निकट निवेदित करें। उनकी ही आज्ञा में और प्रेम की छाया में निवास करें ॥१९॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (आदित्याः) हे विद्वानों ! (वः, अन्तरः) आपके हृदयगत (हीडः, यज्ञः, अस्ति) प्रजाओं के प्रति जानेवाला परोपकाररूप यज्ञ है, इससे (मृडत) हमको सुखी करें (वः, सजात्ये, अपि) हम लोग आपके बन्धुभाव को निश्चय प्राप्त हैं, इससे (युष्मे, इत्, स्मसि) आप ही के हैं ॥१९॥
भावार्थभाषाः - हे परोपकारप्रिय विद्वान् पुरुषो ! आप प्रजाओं के प्रति परोपकारदृष्टि से वर्तने के कारण परोपकाररूप यज्ञ के करनेवाले हैं, जिससे प्रजाजन सुख अनुभव करते हैं और आप मनुष्यमात्र को मित्रता की दृष्टि से देखते हैं, इस कारण हम आपके बन्धुभाव को प्राप्त हैं, अतएव आपका कर्तव्य है कि आप हमें विद्या के मार्ग पर चलाकर सुखी करें, क्योंकि हम आप ही के हैं ॥१९॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे आदित्याः=आचार्य्याः। हीळः=हीळिर्गत्यर्थः। अत्र करणार्थः। कृतो यो यज्ञः=शुभकर्म। यच्छुभकर्मास्माभिरनुष्ठितम्। स यज्ञो वो युष्माकमन्तरः=अन्तिके=समीपे वर्तमानोऽस्तु। भवन्तः सर्वे सुचरितमस्माकं जानन्तु। अतो मृळत=सुखयत। पुनर्वयम्। युष्मे इद्=युष्माकमधीना एव। स्मसि=स्मः। पुनः। वो युष्माकं सजात्ये=सजातित्वे वयं वर्तमानाः स्मः। अतोऽस्मान् सर्वप्रकारैः रक्षत ॥१९॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (आदित्याः) हे विद्वांसः ! (वः, अन्तरः) युष्माकं हृद्नतः (हीडः, यज्ञः, अस्ति) प्रजासु गन्तव्यः परोपकृतिरूपयज्ञोऽस्ति, अतः (मृडत) सुखयत (वः, सजात्ये, अपि) निश्चयं युष्माकं बन्धुत्वे स्थिता वयमतः (युष्मे, इत्, स्मसि) युष्माकमेव स्मः ॥१९॥