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समित्तम॒घम॑श्नवद्दु॒:शंसं॒ मर्त्यं॑ रि॒पुम् । यो अ॑स्म॒त्रा दु॒र्हणा॑वाँ॒ उप॑ द्व॒युः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sam it tam agham aśnavad duḥśaṁsam martyaṁ ripum | yo asmatrā durhaṇāvām̐ upa dvayuḥ ||

पद पाठ

सम् । इत् । तम् । अ॒घम् । अ॒श्न॒व॒त् । दुः॒ऽशंस॑म् । मर्त्य॑म् । रि॒पुम् । यः । अ॒स्म॒ऽत्रा । दुः॒ऽहना॑वान् । उप॑ । द्व॒युः ॥ ८.१८.१४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:18» मन्त्र:14 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:27» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:14


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शिव शंकर शर्मा

दुष्ट दण्डनीय है, यह दिखाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अघम्+इत्) पाप ही (तम्+मर्त्यम्) उस मनुष्य को (सम्+अश्नवत्) अच्छे प्रकार व्याप्त हो अर्थात् विनष्ट कर देवे, जो मनुष्य (दुःशंसम्) दुष्कीर्ति है, जिसने विविध कुकर्म करके संसार में अपयश खरीदा है और जो (रिपुम्) मनुष्यमात्र का शत्रु है, ऐसे मनुष्य को पाप ही खा जाय। पुनः (यः) जो (अस्मत्र) निरपराधी हम लोगों के विषय में (दुर्हणावान्) दुष्टापकारी है, उसको भी पाप हनन करे (द्वयुः) दो प्रकारों से जो युक्त है अर्थात् जो परोक्ष में कार्य्यहन्ता और प्रत्यक्ष में प्रियवादी है, उन सबको पाप खा जाए ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अपनी ओर से किसी का अपराध न हो, ऐसी ही सदा चेष्टा करनी चाहिये। जो जन निरपराधी को सताते हैं, उन्हें सांसारिक नियम ही दण्ड देकर नष्ट कर देता है ॥१४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो मनुष्य (अस्मत्रा) हम लोगों को (दुर्हणावान्) दुर्नीति से दण्ड देना चाहता है (द्वयुः, उप) और प्रत्यक्ष हितकारक तथा परोक्ष में अहित भाव रखता है (तम्) ऐसे (दुःशंसम्) निन्दनीय (रिपुम्, मर्त्यम्) शत्रु मनुष्य को (अघम्, इत्) पाप ही (समश्नवत्) आच्छादित करे ॥१४॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य कुटिल नीति से हमको दुःख पहुँचाता अर्थात् प्रत्यक्ष में शुभचिन्तक तथा परोक्ष में अशुभ विचार करता हुआ सेवन करता है, ऐसा निन्दनीय शत्रु मनुष्य पापों से आच्छादित होकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है ॥१४॥
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शिव शंकर शर्मा

दुष्टो दण्डनीयोऽस्तीति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - अघमित्=पापमेव। तम्+मर्त्यम्=मनुष्यम्। समश्नवत्=सम्यग् व्याप्नोतु। विनाशयत्वित्यर्थः। कीदृशं मर्त्यम्। दुःशंसम्=दुष्कीर्तिम्। पुनः। रिपुम्=मनुष्याणां शत्रुभूतम्। पुनः। योजनः। अस्मत्र=अस्मासु=अस्मद्विषये। दुर्हणावान्=दुष्टापकारी। उप=उपजायते। तमपि। अपि च। यो द्वयुर्द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां युक्तश्च भवति अयमर्थः। यः कश्चित् परोक्षे कार्य्यहन्ता प्रत्यक्षे प्रियवादी स द्वयुरिह निगद्यते य ईदृशः। पिशुनो वर्तते। तमपि च। पापमेव समश्नोतु=भक्षयतु ॥१४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) यो जनः (अस्मत्रा) अस्माद् (दुर्हणावान्) दुर्नीत्या दण्डनवान् (द्वयुः, उप) प्रत्यक्षहितं परोक्षाहितत्वमुपगतः (तम्) तादृशम् (दुःशंसम्) निन्द्यम् (रिपुम्, मर्त्यम्) शत्रुं जनम् (अघम्, इत्) पापमेव (समश्नवत्) व्याप्नोतु ॥१४॥