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यो न॒: कश्चि॒द्रिरि॑क्षति रक्ष॒स्त्वेन॒ मर्त्य॑: । स्वैः ष एवै॑ रिरिषीष्ट॒ युर्जन॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo naḥ kaś cid ririkṣati rakṣastvena martyaḥ | svaiḥ ṣa evai ririṣīṣṭa yur janaḥ ||

पद पाठ

यः । नः॒ । कः । चि॒त् । रिरि॑क्षति । र॒क्षः॒ऽत्वेन॑ । मर्त्यः॑ । स्वैः । सः । एवैः॑ । रि॒रि॒षी॒ष्ट॒ । युः । जनः॑ ॥ ८.१८.१३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:18» मन्त्र:13 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:13


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय कहा जाता है।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (कः+चित्) कोई (मर्त्यः) मनुष्य (रक्षस्त्वेन) राक्षसी वृत्ति धारण कर (नः) हमारी (रिरिक्षति) हिंसा करना चाहता है। (सः+जनः) वह आदमी (स्वैः+एवैः) निज कर्मों से ही (युः) दुःख पाता हुआ रिरिषीष्ट विनष्ट होजाय ॥१३॥
भावार्थभाषाः - अपने अपराधी से बदला लेने की न चेष्टा करे, ईश्वर की इच्छा पर उसे छोड़ देवे। वह शत्रु अवश्य अपने कर्मों से सन्तप्त होता रहेगा या दुष्टता से निवृत्त होगा ॥१३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः, कश्चित्, मर्त्यः) जो कोई मनुष्य (नः) हमको (रक्षस्त्वेन, रिरिक्षति) राक्षसभाव से हिंसित करना चाहता है (सः, युः, जनः) वह दुराचारी जन (स्वैः, एवैः) अपने आचरणों से (रिरिषीष्ट) हिंसित हो ॥१३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में ईर्षा-द्वेष का निषेध करके पुरुष को शक्त्तिसम्पन्न होने का उपदेश किया गया है अर्थात् जो पुरुष किसी को हिंसकभाव से दुःख पहुँचाता है, वह अपने पापरूप आचरणों से स्वयं नाश को प्राप्त हो जाता है, इसलिये पुरुष को सदा अहिंसकभावोंवाला होना चाहिये, हिंसक स्वभाववाला नहीं ॥१३॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमर्थमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - यः कश्चिन् मर्त्यः=मनुष्यः। रक्षस्त्वेन=राक्षसभावेन=राक्षसीं वृत्तिमाश्रित्य। नोऽस्मान्। रिरिक्षति=जिघांसति। रिष हिंसायाम्। स जनः। स्वै=स्वकीयैः। एवैः=कर्मभिः। युः=दुखं गच्छन् सन्। रिरिषीष्ट=हिंसितो भूयात् ॥१३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यः, कश्चित्, मर्त्यः) यः कश्चिन्मनुष्यः (नः) अस्मान् (रक्षस्त्वेन, रिरिक्षति) रक्षोभावेन हिंसितुमिच्छति (सः, युः, जनः) स दुराचारी जनः (स्वैः, एवैः, रिरिषीष्ट) स्वैराचरणैरेव हिंसिषीष्ट ॥१३॥