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अ॒यमु॑ त्वा विचर्षणे॒ जनी॑रिवा॒भि संवृ॑तः । प्र सोम॑ इन्द्र सर्पतु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayam u tvā vicarṣaṇe janīr ivābhi saṁvṛtaḥ | pra soma indra sarpatu ||

पद पाठ

अ॒यम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । जनीः॑ऽइव । अ॒भि । सम्ऽवृ॑तः । प्र । सोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । स॒र्प॒तु॒ ॥ ८.१७.७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:17» मन्त्र:7 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:23» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (विचर्षणे) हे सर्वद्रष्टा (इन्द्र) ईश्वर ! (अयम्+सोमः) यह मेरा यज्ञसंस्कृत सोम पदार्थ (त्वम्+प्र+सर्पतु) तुझको प्राप्त होवे। वह कैसा है। (अभि+संवृतः) नानागुणों से भूषित है। यहाँ दृष्टान्त देते हैं (जनीः+इव) जैसे कुलवधू शुद्ध पवित्र वस्त्रों से आच्छादित है ॥७॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर को निखिल पदार्थ समर्पित कर इसका भी यह आशय है कि जगत् के कल्याण के हेतु प्रतिदिन यथाशक्ति दान प्रदान करता रहे। पुरुषार्थ और सत्यता से प्राप्त धन को अवश्यमेव देशहित व और मनुष्यहित में लगावें ॥७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विचर्षणे, इन्द्र) हे विशेषद्रष्टा योद्धा ! (जनीः, इव) प्रजा के समान (अभिसंवृतः) पय आदि द्रव्यों से आच्छादित (अयम्, सोमः) यह सोमरस (त्वा, उ) आपको (प्रसर्पतु) प्राप्त हो ॥७॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार रिद्धिसिद्धिसम्पन्न प्रजा पय आदि द्रव्यों से परिपूर्ण होकर अभ्युदय का धाम होती है, इसी प्रकार यह सोम पय आदि द्रव्यों से संस्कार को प्राप्त हुआ आपको प्राप्त हो ॥७॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विचर्षणे=विशेषेण सर्वद्रष्टः। इन्द्र ईश ! त्वा=त्वां प्रति। अयं मम सोमः। प्रसर्पतु=प्राप्नोतु। कीदृशः सोमः। जनीः इव=जनयो जाया इव। ता यथा शुद्धैर्वस्त्रैः संवृता भवन्ति। एवमेव मम सोमः। अभिसंवृतोऽस्ति=नानागुणैः भूषितोऽस्ति। उ इति पूरकः ॥७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विचर्षणे, इन्द्र) हे विशेषद्रष्टः योद्धः ! (जनीः, इव) प्रजा इव (अभिसंवृतः) पयआदिभिरावृतः (अयम्, सोमः) अयं सोमरसः (त्वा, उ) त्वां प्रति (प्रसर्पतु) प्रगच्छतु ॥७॥