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प्र॒णे॒तारं॒ वस्यो॒ अच्छा॒ कर्ता॑रं॒ ज्योति॑: स॒मत्सु॑ । सा॒स॒ह्वांसं॑ यु॒धामित्रा॑न् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

praṇetāraṁ vasyo acchā kartāraṁ jyotiḥ samatsu | sāsahvāṁsaṁ yudhāmitrān ||

पद पाठ

प्र॒ऽने॒तार॑म् । वस्यः॑ । अच्छ॑ । कर्ता॑रम् । ज्योतिः॑ । स॒मत्ऽसु॑ । स॒स॒ह्वांस॑म् । यु॒धा । अ॒मित्रा॑न् ॥ ८.१६.१०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:16» मन्त्र:10 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:21» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:10


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शिव शंकर शर्मा

पुनः उसी अर्थ को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - इस ऋचा के द्वारा पुनः इन्द्र के ही विशेषण कहते हैं। (अच्छ) अच्छे प्रकार वह इन्द्र उपासकों की ओर (वस्यः) प्रशस्त धन (प्रणेतारम्) ले जानेवाला है। पुनः (समत्सु) संसार में यद्वा संग्रामों में (ज्योतिः+कर्त्तारम्) प्रकाश देनेवाला है तथा (युधा) संग्राम द्वारा (अमित्रान्) संसार के शत्रुभूत मनुष्यों को (ससह्वांसम्) निर्मूल करनेवाला है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! यदि उसकी शरण में अन्तःकरण से प्राप्त होंगे, तब निश्चय है कि वह तुमको धन की ओर ले जायगा, महान् से महान् संग्राम में तुमको ज्योति देगा और अन्त में तुम्हारे निखिल शत्रुओं का समूलोच्छेद करेगा ॥१०॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - जो परमात्मा (वस्यः, अच्छा, प्रणेतारम्) धनों को अभिमुख करनेवाला (समत्सु, ज्योतिः, कर्तारम्) संग्राम में पौरुष देनेवाला (युधा, अमित्रान्) योद्धाओं द्वारा शत्रुओं को (ससह्वांसम्) अभिभूत करनेवाला है, उसको विद्वान् लोग प्रकाशित करते हैं ॥१०॥
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा सम्पूर्ण धनों का देनेवाला, युद्ध में अपने भक्तों को पौरुष देनेवाला अर्थात् न्याययुक्त योद्धाओं का सहायक और न्यायपथ से च्युत योद्धाओं को अभिभूत=पराजित करनेवाला है, वही सबका रक्षक और सदा उपासनायोग्य है ॥१०॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमेवार्थमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - पुनरिन्द्रमेव विशिनष्टि। कीदृशमिन्द्रम्। वस्यः=वसीयः। प्रशस्ततरम्। वसु=धनम्। अच्छ=आभिमुख्येन। प्रणेतारम्=प्रापयितारम्। पुनः। समत्सु=संसारेषु संग्रामेषु वा। ज्योतिः=प्रकाशम्। कर्तारम्=विधातारम्। उभयत्र ताच्छीलिकस्तृन्। पुनः। युधा=संग्रामेण। अमित्रान्=संसारस्य शत्रुभूतान् मनुष्यान्। ससह्वांसम्=अभिभूतवन्तमभिभावयितारम्= विनाशकम् ॥१०॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वस्यः, अच्छा, प्रणेतारम्) अभिमुखं धनं कर्तारम् (समत्सु, ज्योतिः, कर्तारम्) संग्रामेषु पौरुषं दातारम् (युधा, अमित्रान्) योद्धृद्वारा शत्रून् (ससह्वांसम्) अभिभवितारम्, वर्धन्ति ॥१०॥