येन॒ ज्योतीं॑ष्या॒यवे॒ मन॑वे च वि॒वेदि॑थ । म॒न्दा॒नो अ॒स्य ब॒र्हिषो॒ वि रा॑जसि ॥
                                    अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
                  
                
                yena jyotīṁṣy āyave manave ca viveditha | mandāno asya barhiṣo vi rājasi ||
                  पद पाठ 
                  
                                येन॑ । ज्योतीं॑षि । आ॒यवे॑ । मन॑वे । च॒ । वि॒वेदि॑थ । म॒न्दा॒नः । अ॒स्य । ब॒र्हिषः॑ । वि । रा॒ज॒सि॒ ॥ ८.१५.५
                  ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:15» मन्त्र:5 
                  | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:5 
                  | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:5
                
              
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                    शिव शंकर शर्मा
परमदेव की स्तुति दिखलाते हैं।
                   पदार्थान्वयभाषाः -  हे परमदेव ! (येन) जिस आनन्द से युक्त होकर आप (आयवे) मातृगर्भ में वारंवार आनेवाले (मनवे) मननकर्ता जीवात्मा के लिये (ज्योतींषि) बहुत प्रकाश (विवेदिथ) देते हैं। हे भगवन् ! (मन्दानः) वह आनन्दमय आप (अस्य+बर्हिषः) इस प्रवृद्ध संसार के मध्य में (वि+राजसि) विराजमान हैं ॥५॥              
              
              
                            
                  भावार्थभाषाः -  वह इन्द्र हम जीवों को सूर्य्यादिकों और इन्द्रियों के द्वारा भौतिक और अभौतिक दोनों प्रकार की ज्योति दे रहा है, जिनसे हमको बहुत सुख मिलते हैं। तथापि न तो उसको हम जानते और न उसको पूजते। हे मनुष्यों ! यहाँ ही वह विद्यमान है। उसी को जान पूजो, यह आशय है ॥५॥              
              
              
                            
              
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                    आर्यमुनि
                   पदार्थान्वयभाषाः -  (येन) जिस बल से (आयवे) कर्मप्राप्ति के लिये (मनवे) तथा ज्ञान के लिये (ज्योतींषि) विविध दिव्यशक्तियों को (विवेदिथ) प्राप्त कराते हैं और (अस्य, बर्हिषः) इस उपासक के हृदयासन में (मन्दानः) आह्लाद उत्पन्न करते हुए (विराजसि) शोभित होते हैं ॥५॥              
              
              
                            
                  भावार्थभाषाः -  हे परमात्मन् ! जिस बल से ज्ञान तथा कर्मों की उन्नति करते हुए अनेक दिव्यशक्तिसम्पन्न होकर ऐश्वर्य्यसम्पन्न होते हैं और जिस बल से उपासक लोग आपको अपने हृदय में धारण कर आह्लादित होते हैं, उसी बल की हम आपसे याचना करते हैं ॥५॥              
              
              
                            
              
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                    शिव शंकर शर्मा
इन्द्रस्तुतिं दर्शयति।
                   पदार्थान्वयभाषाः -  हे परमदेव ! येन=आनन्देन सह विद्यमानस्त्वम्। आयवे=आयाति मातृगर्भं प्राप्नोति यः स आयुर्मातृगर्भनिवासी। तस्मै। मनवे=मननकर्त्रे जीवात्मने च। ज्योतींषि=बहुप्रकाशान् विज्ञानलक्षणान्। विवेदिथ=प्रकाशयसि। एवम् मन्दानः= आनन्दमयस्त्वम्। अस्य+बर्हिषः=प्रवृद्धस्य संसारस्य मध्य एव। वि+राजसि=विशेषेण शोभसे। स त्वं न दूरदेशे वर्तसे किन्तु सर्वगोऽसि ॥५॥              
              
              
              
              
                            
              
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                    आर्यमुनि
                   पदार्थान्वयभाषाः -  (येन) येन बलेन (आयवे) कर्मप्राप्त्यै (मनवे) ज्ञानलाभाय च (ज्योतींषि) स्वदिव्यशक्तीः (विवेदिथ) लम्भयसि (अस्य, बर्हिषः) अस्योपासकस्य हृदयासने (मन्दानः) आनन्दयन् (विराजसि) शोभसे ॥५॥              
              
              
              
              
                            
              
            
                  