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अरं॒ क्षया॑य नो म॒हे विश्वा॑ रू॒पाण्या॑वि॒शन् । इन्द्रं॒ जैत्रा॑य हर्षया॒ शची॒पति॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

araṁ kṣayāya no mahe viśvā rūpāṇy āviśan | indraṁ jaitrāya harṣayā śacīpatim ||

पद पाठ

अर॒म् । क्षया॑य । नः॒ । म॒हे । विश्वा॑ । रू॒पाणि॑ । आ॒ऽवि॒शन् । इन्द्र॑म् । जैत्रा॑य । ह॒र्ष॒य॒ । श॒ची॒३॒॑ऽपति॑म् ॥ ८.१५.१३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:15» मन्त्र:13 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:19» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:13


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शिव शंकर शर्मा

स्तुति का विधान करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्तुतिपाठक विद्वन् ! (नः) हमारे (महे) महान् (क्षयाय) गृह में उस परमात्मा के (विश्वा) सब (रूपाणि) रूप अर्थात् धन-जन द्रव्यादि निखिलरूप अर्थात् सर्व पदार्थ (आविशन्) विद्यमान हैं। इसके लिये इन्द्र प्रार्थनीय नहीं, किन्तु (जैत्राय) आभ्यन्तर और बाह्यशत्रुओं को जीतने के लिये (शचीपतिम्) निखिल कर्मों और शक्तियों का अधिपति (इन्द्रम्) इन्द्र को (हर्षय) प्रसन्न करे ॥१३॥
भावार्थभाषाः - जैसे उसकी कृपा से मेरा गृह सर्वधनसम्पन्न है, वैसे ही तुम्हारा गृह भी वैसा ही हो, यदि उसी को पूजो ॥१३॥
टिप्पणी: यह अष्टम मण्डल का पन्द्रहवाँ सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (नः) जो हमारे (महे, क्षयाय) महान् निवास के लिये (अरम्) पर्याप्त है और (विश्वा, रूपाणि) सब पदार्थों में (आविशन्) व्याप्त है (इन्द्रम्) उस परमैश्वर्यसम्पन्न (शचीपतिम्) सर्वशक्त्याधार की (जैत्राय) जय से प्राप्त करने योग्य पदार्थों के निमित्त (हर्षय) स्तुति करो ॥१३॥
भावार्थभाषाः - जयैषी=जय की इच्छावाले पुरुष को चाहिये कि परमात्मा के शरण में रहते हुए अपनी जय का उद्योग करे, क्योंकि वह सब ब्रह्माण्डों में ओत-प्रोत है और सबसे अधिक ऐश्वर्य्य तथा सब शक्तियों का आविर्भाव वा विनाश उसी से होता है ॥१३॥ यह पन्द्रहवाँ सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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शिव शंकर शर्मा

स्तुतिविधिः क्रियते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्तुतिपाठक ! इन्द्रकृपया नोऽस्माकम्। महे=महते। क्षयाय=गृहाय। गृह इत्यर्थः। “क्षयन्ति निवसन्ति मनुष्या यत्र स क्षयो भवनम्। वेदे क्षयतिर्निवासकर्मा”। अरम्=पर्य्याप्तानि। विश्वा=सर्वाणि=रूपाणि=धनजनद्रव्यादीनां विविधानि रूपाणि। आविशन्=व्याप्नुवन्ति। अस्माकं गृहमिन्द्र कृपया सर्वं धनसम्पन्नमस्तीति। अतः। जैत्राय=विजयार्थं शत्रूणाम्। शचीपतिम्=शचीनां निखिलकर्मणां शक्तानां च पतिम्=स्वामिनम्। हर्षय=स्वस्तुतिभिः प्रसादय ॥१३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (नः) यः अस्माकम् (महे, क्षयाय) महते निवासाय (अरम्) पर्याप्तः (विश्वा, रूपाणि) सर्वान् पदार्थान् (आविशन्) व्याप्तः (इन्द्रम्) तं परमात्मानम् (शचीपतिम्) शक्त्याधारम् (जैत्राय) जेतव्यलाभाय (हर्षय) स्तुहि ॥१३॥ इति पञ्चदशं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥