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धे॒नुष्ट॑ इन्द्र सू॒नृता॒ यज॑मानाय सुन्व॒ते । गामश्वं॑ पि॒प्युषी॑ दुहे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dhenuṣ ṭa indra sūnṛtā yajamānāya sunvate | gām aśvam pipyuṣī duhe ||

पद पाठ

धे॒नुः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । सू॒नृता॑ । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते । गाम् । अश्व॑म् । पि॒प्युषी॑ । दु॒हे॒ ॥ ८.१४.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:14» मन्त्र:3 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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शिव शंकर शर्मा

वाणी सत्या बनानी चाहिये, यह दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (ते) तेरे उद्देश से प्रयुक्त हम लोगों की वाणी यदि (सूनृता) सत्य और सुमधुरा है, तो वही वाणी (पिप्युषी) सदा बढ़ानेवाली (धेनुः) गोसमान होकर (सुन्वते+यजमानाय) शुभ कर्म करनेवाले यजमान को (गाम्) दूध देने के लिये गाएँ और चढ़ने के लिये (अश्वम्) घोड़े (दुहे) सदा देती है। यद्वा (ते) तेरे उद्देश से प्रयुक्त (धेनुः) हम लोगों की वाणी यदि (सूनृता) सत्य और सुमधुर हो, तो वही वाणी इत्यादि पूर्ववत्। धेनु नाम वाणी का भी है, निघण्टु देखो। अर्थात् स्वकीय वाणी को पवित्र और सुसंस्कृत करनी चाहिये और उसको ईश्वर में लगावे, इसी से सर्वसुख आदमी प्राप्त कर सकता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे इन्द्र ! जो मैं तुझसे सदा धन माँगता रहता हूँ, वह भी अनुचित ही है, क्योंकि त्वत्प्रदत्त वाणी ही मुझको सब देती है। अन्य कोई भी यदि स्वकीया वाणी को भी सुमधुरा और सुसंस्कृता बनावेगा, तब वह उसी से पूर्ण मनोरथ होगा। अतः सर्वदा ईश्वर के समीप धनयाचना न करनी चाहिये, किन्तु तत्प्रदत्त साधनों से उद्योगी होना चाहिये, यह शिक्षा इस ऋचा से देते हैं ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे योद्धा ! (ते, सूनृता) आपकी सत्य प्रियवाक् (धेनुः) गौ के समान (सुन्वते, यजमानाय) कर्मचारी जन के लिये (पिप्युषी) फैलती हुई (गाम्) ज्ञान को (अश्वम्) और कर्म को (दुहे) दुहती है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार गौएँ वृद्धि को प्राप्त हुईं चारों ओर फैल कर अपने दुग्धपान द्वारा सब ज्ञानयोगियों तथा कर्मयोगियों के ज्ञान और बल को बढ़ाकर सब कार्यों को उत्साहसहित तथा नियमपूर्वक कराती हैं, उसी प्रकार सम्राट् की सत्य तथा प्रिय वाणियाँ प्रजावर्ग में फैलकर सब कर्मचारियों को उत्साहसम्पन्न करती हुई ज्ञान-कर्म को समुन्नत करती हैं अर्थात् सत्यवादी तथा विश्वासपात्र राजा से सम्पूर्ण प्रजा तथा उसके कर्मचारीगण प्रसन्न हुए सर्व प्रकार से राष्ट्र की उन्नति में यत्नवान् होते हैं और जो राजा विश्वासपात्र नहीं है, वह शीघ्र ही राष्ट्र से च्युत होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है ॥३॥
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शिव शंकर शर्मा

वाणी सत्या कर्त्तव्येति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! ते=तवोद्देशेन प्रयुक्ता अस्माकं वाणी। यदि। सूनृता=सत्या सुमधुरा च भवेत्। तर्हि सैव। पिप्युषी=वर्धयित्री=पोषयित्री। धेनुः=धेनुवद्भूत्वा। सुन्वते=शुभानि कर्माणि कुर्वते। यजमानाय। गामश्वञ्च। दुहे=दुग्धे। ददातीत्यर्थः। अन्य धनस्य किं प्रयोजनमित्यर्थः। यद्वा। धेनुरिति वाङ्नाम यदि तवोद्देशेन प्रयुक्ता। धेनुर्वाग् सूनृतास्यां तर्हि सैवेत्यादि पूर्ववत् ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे योद्धः ! (ते, सूनृता) तव सत्यप्रियवाक् (धेनुः) गौरिव (सुन्वते, यजमानाय) कर्म कुर्वते यजमानाय (पिप्युषी) प्रसृता सती (गाम्) ज्ञानम् (अश्वम्) व्यापकं कर्म च (दुहे) दुग्धे ॥३॥